5.2 आजाद हिन्द सैनिकों का क्या हुआ?

         सिंगापुर के पतन के बाद आजाद हिन्द फौज के लगभग 16,000 सैनिकों को ब्रिटिश सेना बन्दी बनाती है। ब्रिटिश फील्ड इण्टेलीजेन्स इस सैनिकों को तीन वर्गों में बाँटती है- जो पक्के देशभक्त एवं नेताजी के भक्त हैं, उन्हें "ब्लैक" (काला) वर्ग में रखा जाता है; जिनकी भक्ति डाँवाडोल होती है, उन्हें "ग्रे" (भूरा) वर्ग में, और जो यह कहते हैं कि वे बस परिस्थितिवश फौज में शामिल हुए थे, उन्हें "व्हाईट" (सफेद) वर्ग में रखा जाता है।

जुलाई 1945 में इन युद्धबन्दी सैनिकों के एक बड़े हिस्से को जलजहाजों से भारत लाया जाता है। बाकी बचे सैनिकों को जापान की पराजय के बाद रंगून होते हुए लाया जाता है।

झाँसी की रानी रेजीमेण्ट की महिला सैनिकों तथा मलय एवं बर्मी स्वयंसेवकों को नेताजी ने पहले ही मुक्त कर दिया था और जैसाकि हम जानते हैं- रंगून के पतन से पहले फौज के सारे दस्तावेज जला दिये गये थे, अतः ब्रिटिश सैनिक इन महिला सैनिकों तथा स्वयंसेवकों को नागरिकों में से खोज कर नहीं निकाल पाते हैं। 

बन्दी सैनिकों को चटगाँव, कोलकाता के पास झिंगेरगाछा और नीलगंज, पूणे के पास किर्की, दिल्ली के पास बहादूरगढ़, मुल्तान इत्यादि युद्धबन्दी शिविरों में रखा जाता है।

बहादूरगढ़ में जर्मनी से लाये गये "इण्डियन लीजन" के सैनिकों को भी रखा जाता है।

दिसम्बर 1945 से प्रतिसप्ताह 600 करके 5,000 "व्हाईट" बन्दियों को रिहा किया जाता है, जबकि बाकी से पूछताछ जाती है। "ग्रे" के लिए अपेक्षाकृत हल्की सजा और "ब्लैक" के लिए कठोर सजा का निर्णय लिया जाता है।

चूँकि इन सैनिकों ने ब्रिटिश सेना का परित्याग कर आजाद हिन्द फौज को चुना था और ब्रिटिश सेना के ही खिलाफ हथियार उठाया था, अतः कुछ बन्दी अधिकारियों को सजाये-मौत देकर ब्रिटिश सेना एक सन्देश देना चाहती है- ताकि भविष्य में भारतीय सैनिक ऐसा दुस्साहस फिर न दिखायें।

(यह एक दूसरी बात है कि दिसम्बर'41 में जब जापानियों ने सिंगापुर पर आक्रमण किया था, तब सारे-के-सारे ब्रिटिश सैन्य अधिकारी भाग खड़े हुए थे- उस समय इन अधिकारियों ने यह नहीं सोचा था कि जिन 40-50,000 भारतीय सैनिकों को अनाथ छोड़कर वे भाग रहे हैं, उनकी जापानियों के हाथों क्या दुर्गति होगी! इन ब्रिटिश सैन्य अधिकारियों की मानसिकता दर्शाने के लिए यहाँ एक ही उदाहरण काफी होगा कि जब तोपखाने के एक सूबेदार ने नगर की रक्षा के लिए ‘गोल्फ लिंक’ के किनारे मोर्चा बाँधने की अनुमति माँगी, तब उसे जवाब मिला कि ‘गोल्फ क्लब’ की बैठक में इसपर निर्णय लिया जायेगा और वह बैठक अगले हफ्ते होगी, तब तक वह ऐसी कोई कोशिश न करे... यह वह समय था, जब सिंगापुर का पतन होने ही वाला था! कहने को ब्रिटिश अधिकारी सिंगापुर की अपनी छावनी को ‘अभेद्य’ कहते थे और इसे ‘पूर्व का जिब्राल्टर’ तथा ‘बैस्टियन ऑव द एम्पायर’ की उपमा से नवाजते थे; मगर वास्तव में वे वहाँ विलासितापूर्ण जीवन बिताते थे।)

लगभग 20 सैन्य अधिकारियों को सजाये-मौत देने की तैयारी है, जिसके लिए नवम्बर'45 से मई'46 के बीच दस कोर्ट-मार्शल लालकिले में आयोजित किये जाते हैं।

पहली सजाये-मौत जिन तीन अधिकारियों को दी जाती है, वे हैं- कर्नल प्रेम सहगल, कर्नल गुरुबख्श सिंह और लेफ्टिनेण्ट जेनरल एस.एन. खान।

रंगून को जीतने के बाद ही ब्रिटिश सरकार ने प्रेस पर से पाबन्दी हटा दी है और अब आजाद हिन्द फौज तथा नेताजी के किस्से पत्र-पत्रिकाओं में छपने लगे हैं। जनता की सहानुभूति आजाद हिन्द फौज के सैनिकों के प्रति बढ़ती जा रही है और लालकिले में चल रहे कोर्ट-मार्शल के खिलाफ जनता का रोष उसी अनुपात में बढ़ता जा रहा है।

काँग्रेस ने आजाद हिन्द सैनिकों के बचाव के लिए बाकायदे "आई.एन.ए. डिफेन्स काउन्सिल" का गठन कर रखा है, जिसमें नामी-गिरामी वकील मौजूद हैं, जैसे- जवाहर लाल नेहरू, भूलाभाई देसाई, कैलाशनाथ काटजू, इत्यादि।

इस मामले में मुस्लिम लीग भी काँग्रेस के साथ है। तिरंगे और हरे झण्डों के साथ आजाद हिन्द सैनिकों के समर्थन में खूब प्रदर्शन हो रहे हैं।  

अब इसे ब्रिटिश सरकार का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि जिन तीन अधिकारियों को पहले-पहल मौत की सजा मिलती है, उनमें से एक हिन्दू है, दूसरा सिक्ख और तीसरा मुसलमान! सो, सारा-का-सारा देश ही इस सजा पर भड़क उठता है। बहुत ही उग्र प्रदर्शन होने लगते हैं।

विश्वयुद्ध जीतने वाले और आधी दुनिया पर राज करने वाले अँग्रेजों की हिम्मत नहीं होती है कि वे इस सजा को अमली जामा पहना सकें! (काश, देशवासियों ने देशभक्ति के इस जज्बे, इस जुनून का प्रदर्शन दो साल पहले किया होता, जब नेताजी इम्फाल-कोहिमा सीमा पर युद्ध कर रहे थे...)

...अन्त में कमाण्डर-इन-चीफ क्लाउड ऑचिनलेक (Claude Achinleck) इन तीनों 'नायकों' को रिहा कर देते हैं। 11,000 अन्य आजाद हिन्द सैनिकों को भी- वेतन-भत्ता आदि जब्त कर- रिहा कर दिया जाता है।

सेना के भारतीय जवानों को बगावत के बदले 'सबक' सिखाने का दाँव ब्रिटिश सेना को उल्टा पड़ जाता है। भारतीय जवानों के बीच ब्रिटिश अधिकारियों का रुतबा (आजाद हिन्द सैनिकों की इस रिहाई के बाद) समाप्त हो जाता है। ...अब इस सेना के भरोसे भारत-जैसे विशाल देश पर शासन करना अँग्रेजों के लिए सम्भव नहीं है।  

इन परिस्थितियों में लन्दन में भारत पर कुछ फैसले लिये जाते हैं, जिनमें से एक है- बर्मा के गवर्नर जेनरल लॉर्ड माउण्टबेटन को भारत का अन्तिम वायसराय बनाना (वावेल के स्थान पर)। माउण्टबेटन नेहरूजी को सिंगापुर बुलाते हैं और सूचित करते हैं कि ब्रिटेन भारत की सत्ता उन्हीं को हस्तांतरित करना चाहता है, बस नेहरूजी को ब्रिटेन की कुछ शर्तों का पालन करना होगा। उन शर्तों में से एक शर्त यह भी है कि आजाद हिन्द सैनिकों को आजाद भारत की सेना में शामिल नहीं किया जायेगा। (अगर नेताजी कहीं लौट आते हैं, तो ये सैनिक और इनके प्रभाव से अन्य सैनिक, भारत की सत्ता नेताजी के हाथों में सौंप देंगे!) इसके अलावे माउण्टबेटन नेहरूजी को आगाह करते हैं कि (लालकिले के कोर्ट-मार्शल में जो हुआ, सो हुआ) अब वे आजाद हिन्द फौज तथा नेताजी का गुणगाण न करें। बेशक, नेहरूजी को सारी शर्तें और सलाह मंजूर है।

हालाँकि बाद में इन सैनिकों को होमगार्ड, पुलिस, अर्द्धसैन्य बल में शामिल होने की छूट दी जाती है। मगर ज्यादातर गरीबी का जीवन बिताते हुए किसी प्रकार गुजर-बसर करते हैं। हाँ, मो. जिन्ना पाकिस्तान गये आजाद हिन्द सैनिकों को पूरे सम्मान के साथ नियमित पाकिस्तानी सेना में शामिल करते हैं।

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नेताजी के जो सहयोगी या आजाद हिन्द फौज के जो अधिकारी बाद के जीवन में प्रसिद्ध होते हैं, उनके बारे में जानते हैं:-

·         मोहन सिंह राज्य सभा के सदस्य चुने जाते हैं। वे आजाद हिन्द सैनिकों को "स्वतंत्रता सेनानी" का दर्जा दिलाने के लिए संसद के अन्दर व बाहर अभियान चलाते हैं।

·         एस.एन. खान (पूरा नाम- शाहनवाज़ खान) नेहरूजी के पहले मंत्रीमण्डल में रेल राज्य मंत्री बनते हैं।

·         लक्ष्मी सहगल 1971 में भारतीय साम्यवादी दल (मार्क्सवादी) में शामिल होती हैं और बाद में ऑल इण्डिया डेमोक्रेटिक वूमेन्स एसोसियेशन की नेत्री चुनी जाती हैं। 2002 में उन्हें राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार भी बनाया जाता है, मगर तत्कालीन भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली गठबन्धन सरकार उनके मुकाबले वैज्ञानिक ए.पी.जे. अब्दुल कलाम को उम्मीदवार बनाकर उनकी पराजय निश्चित कर देती है।

·         नेताजी की 'पनडुब्बी यात्रा' में सहयात्री रहे आबिद हसन 1948 में भारतीय विदेश सेवा में शामिल होते हैं। मिश्र और डेनमार्क सहित कई देशों में वे राजदूत बनते हैं।

·         एस.ए. अय्यर (सम्भवतः) प्रशासनिक अधिकारी बनते हैं। 

·         आजाद हिन्द फौज के प्रसिद्ध कूच गीत "कदम-कदम बढ़ाये जा" के रचयिता राम सिंह ठाकुर आजाद भारत के राष्ट्रगीत का धुन तैयार करते हैं।

·         बहुत ही कम आजाद हिन्द सैनिक आजाद भारत की नियमित सेनाओं में शामिल हो पाये थे, उनमें से एक हैं- आर.एस. बेनेगल- 'टोक्यो ब्वॉयज' के एक सदस्य। 1952 में वे भारतीय वायु सेना में शामिल होते हैं और एयर कोमोडोर के पद तक पहुँचते हैं। 1965 और 1971 के भारत-पाक युद्धों में वे सक्रिय रुप से भाग लेते हैं और बहादूरी का दूसरा सबसे बड़ा ईनाम महावीर चक्र के हकदार बनते हैं।

·         1990 के दशक में भारत सरकार गुरूबख्श सिंह ढिल्लों और लक्ष्मी सहगल को नागरिक सम्मान पद्म-विभूषण से सम्मानित करती है।

·         झाँसी की रानी रेजीमेण्ट की सेकेण्ड-इन-कमाण्ड जानकी अति नाहप्पन 1946 में मलेशियन इण्डियन काँग्रेस की स्थापना करती हैं और बाद के दिनों में वे प्रसिद्ध जननेत्री तथा मलेशियायी संसद की सदस्या बनती हैं।

·         झाँसी की रानी रेजीमेण्ट की ही रासम्मा भूपालन मलेशिया में महिला अधिकारों की नामी नेत्री बनती हैं।

यहाँ यह बताना प्रासंगिक होगा कि 1992 में नेताजी को 'मरणोपरान्त' भारत रत्न दिया गया था, जिसे बाद में सरकार को वापस लेना पड़ा। नेताजी से जुड़े दस्तावेजों पर कुण्डली मारे बैठी सरकारें आखिर किस आधार पर नेताजी को 'मृत' घोषित कर सकती हैं?  

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हमें यह जानकर प्रसन्न होना चाहिए कि आजादी का जश्न मनाने के लिए 15 अगस्त 1947 के दिन भारतीय डाक एवं तार विभाग ने चिट्ठियों पर जो मुहर लगायी थी, उस पर आजाद हिन्द फौज की एक युद्ध-ललकार (बैटल क्राई) "जय हिन्द" अंकित था।

"जय हिन्द" आज भी भारतीयों का एक पसन्दीदा नारा है।

हमें भी कोशिश करनी चाहिए कि हम आपस में अभिवादन के लिए "जय हिन्द" का इस्तेमाल करें।