4.7.1 नेताजी सोवियत संघ में ही थे! (परिस्थितिजन्य साक्ष्य) 

    

    इस बात को यहाँ एक बार फिर रेखांकित किया जा रहा है कि जब तक भारत सरकार खुद प्रधानमंत्री कार्यालय, गृह मंत्रालय और विदेश मंत्रालय की गोपनीय आलमारियों में कैद नेताजी से जुड़े दस्तावेजों को सार्वजनिक नहीं करती और रूस तथा जापान सरकारों से ऐसा ही करने का अनुरोध नहीं करती, तब तक बहुत-सी बातें स्पष्ट नहीं होंगी, और तब तक हमें परिस्थितिजन्य साक्ष्यों के तार्किक विश्लेषण के आधार पर घटनाक्रमों का ‘अनुमान’ ही लगाना पड़ेगा- कोई और चारा नहीं है।

वैसे, इस मामले में अब ज्यादा भरोसा रूस और जापान सरकारों पर रह गया है। भारत में हमारे प्रशासनिक अधिकारीगण एक-एक कर नेताजी से जुड़े दस्तावेजों को नष्ट कर रहे हैं। जैसे कि फाइल संख्या ‘12(226)/56, विषय- सुभाष चन्द्र बोस की मृत्यु की परिस्थितियाँ’ के बारे में बाकायदे शपथपत्र दाखिल करके अधिकारियों ने ‘मुखर्जी आयोग’ को यह बाताया कि इसे वर्ष 1972 में ही नष्ट कर दिया गया था- वह भी बिना प्रतिलिपि तैयार किये।

(जरा सोचिये, उस वक्त ‘खोसला आयोग’ इसी विषय पर जाँच कर रहा था!)

इस प्रकार, नेहरूजी के समय के ‘प्रधानमंत्री की विशेष फाइलों’ (PM’s Special Files) में से ज्यादातर को- जो नेताजी से जुड़ी थीं- इन्दिराजी के समय में ‘खो गयीं या नष्ट कर दे गयीं’ बताया जाता है।

इन फाइलों को नेहरूजी के निजी सचिव मो. युनूस देखते थे। नेहरूजी ने अपने ये फाइल 1956 में (खुदके द्वारा) गठित ‘शाहनवाज आयोग’ को भी नहीं देखने दिये थे।

(सच तो यह है कि इन फाईलों के दस्तावेज अगर प्रकाशित हो जाते, तो आज एक के बाद एक करके तीन जाँच आयोगों के गठन की नौबत ही नहीं आती!)  

बात निकलती है, तो दूर तलक जाती है। इसे हम भारतवासियों का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि हम आज तक सुभाष चन्द्र बोस ही नहीं, लाल बहादूर शास्त्री और श्यामाप्रसाद मुखर्जी की मौतों पर से भी पर्दा नहीं हटा पाये हैं।

खैर, ये बातें फिर कभी।

***

फिलहाल, वे परिस्थितिजन्य साक्ष्य, जिनसे पता चलता है कि नेताजी को ले जाने वाला विमान सकुशल मंचुरिया पहुँचा था और नेताजी वहाँ से सोवियत संघ में प्रवेश कर गये थे:

 

ब्रिटिश प्रधानमंत्री का निर्णय

ब्रिटेन में विश्वयुद्ध के बाद हुए चुनाव में युद्ध से त्रस्त ब्रिटिश जनता युद्धकालीन प्रधानमंत्री चर्चिल को नकार देती है और विरोधी पक्ष के क्लिमेण्ट एटली को अपना अगला प्रधानमंत्री चुनती है।

23 अगस्त 1945 को भारत सरकार के गृह मंत्रालय के सर आर.एफ. मुडि ‘नेताजी से कैसे निपटा जाय’ (‘How to deal with Bose’)- विषय पर एक रपट तैयार करते हैं। (अत्यन्त गोपनीय पत्र संख्या- 57, दिनांक- 23 अगस्त 1945।)

रपट सर ई. जेनकिन्स को सम्बोधित है।

(ब्रिटेन में एक बहुत अच्छा कानून है कि एक निश्चित अन्तराल- 30 वर्ष- के बाद ‘गोपनीय’ दस्तावेजों को सार्वजनिक किया जा सकता है। 1976 में सार्वजनिक हुए दस्तावेजों से ही यह पता चला था कि ब्रिटेन ने तुर्की स्थित अपने एस.ओ.ई. को ‘नेताजी की हत्या’ कर देने का आदेश दिया था, रंगून से सिंगापुर रवाना होने वाली अपनी सेना को ‘नेताजी से मौके पर निपट लेने’ का निर्देश दिया था, और ब्रिटिश जासूसों ने तेहरान और काबुल के सोवियत दूतावासों के हवाले से खबर दी थी कि बोस रशिया में हैं। ...अपने देश में ऐसे किसी कानून की अपेक्षा वर्तमान व्यवस्था के अन्तर्गत तो नहीं ही की जा सकती।) 

वायसराय इस रपट को ब्रिटेन की संसद में पेश करते हैं।

मंत्रीपरिषद इस रपट पर टिप्पणी लिखता है-

रूस ने विशेष परिस्थितियों में बोस को स्वीकार कर लिया होगा। अगर ऐसा है, तो हमें उन्हें वापस नहीं माँगना चाहिए।

(“Russia may accept Bose under special circumstances. If that is the case, we shouldn’t demand him back.”)

एटली इस पर निर्णय लेते हैं-

उन्हें वहीं रहने दिया जाय, जहाँ वे हैं।

(“Let him remain where he is now.”)

एटली यह निर्णय अक्तूबर 1945 में लेते हैं। यानि नेताजी अक्तूबर’45 तक तो जीवित थे ही।

      

नेहरूजी ने एटली को क्या लिखा और किस आधार पर लिखा?

       26 या 27 दिसम्बर 1945 को नेहरूजी आसिफ अली के निवास पर बैठकर ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लिमेण्ट एटली के नाम एक पत्र टाईप करवाते हैं। पत्र का मजमून है- 

       श्री क्लिमेण्ट एटली

       ब्रिटिश प्रधानमंत्री

       10 डाउनिंग स्ट्रीट, लन्दन       

प्रिय मि. एटली,

अत्यन्त भरोसेमन्द स्रोत से मुझे पता चला है कि आपके युद्धापराधी सुभाष चन्द्र बोस को स्तालिन द्वारा रूसी क्षेत्र में प्रवेश करने की अनुमति दे दी गयी है। यह सरासर धोखेबाजी और विश्वासघात है। रूस चूँकि ब्रिटिश-अमेरीकियों का मित्र है, अतः उसे ऐसा नहीं करना चाहिए था।

कृपया इस पर ध्यान दें और जो उचित तथा सही समझें वह करें।

                         आपका विश्वासी,

                         जवाहर लाल नेहरू

अब देखें कि नेहरूजी के ‘अत्यंत भरोसेमन्द सूत्र’ ने क्या लिखा है। यह एक हस्तलिखित नोट है:

नेताजी विमान द्वारा सायगन से चलकर 23 अगस्त 1945 को दोपहर 1:30 पर मंचुरिया के दाईरेन में पहुँचे। विमान एक जापानी बमवर्षक था। उनके साथ बड़ी मात्रा में सोने की छड़ें और गहने थे। विमान से उतरकर उन्होंने केले खाये और चाय पी। वे तथा चार अन्य व्यक्ति, जिनमें एक जापानी अधिकारी सिदेयी थे, जीप में बैठे और रूसी सीमा की ओर चले गये। करीब तीन घण्टे के बाद, जीप वापस लौटी और पायलट को टोक्यो वापस लौट जाने का निर्देश दिया गया।

       उपर्युक्त जानकारी हमें ‘आई.एन.ए. डिफेन्स कमिटी’ के कॉन्फिडेन्शियल स्टेनो श्री श्यामलाल जैन के उस बयान से मिलती है, जो उन्होंने ‘खोसला आयोग’ (1970 में गठित) के सामने- बाकायदे शपथ उठाकर- दिया था। श्री जैन नेहरूजी के उस ‘अत्यंत भरोसेमन्द सूत्र’ का हस्ताक्षर नहीं पढ़ पाये थे, क्योंकि वह स्पष्ट नहीं था। मगर ‘सामग्री’ उन्हें याद रह गयी। एटली को लिखे पत्र का मजमून तो उन्हें याद रहना ही था, क्योंकि नेहरूजी के लेटरहेड की चार प्रतियों पर उन्होंने खुद इसे टाईप किया था।

       अगर नेहरूजी के ‘अत्यंत भरोसेमन्द सूत्र’ की जानकारी तथा श्री जैन की याददाश्त एकदम सही है, तो इसका मतलब यह हुआ कि नेताजी 18 अगस्त से 22 अगस्त 1945 तक ताईपेह में ही गुप्त रुप से रह रहे थे। जाहिर है- इसी दौरान विमान-दुर्घटना के ‘नाटक’ के सभी ‘किरदारों’ ने अपने-अपने ‘संवाद’ याद किये होंगे

22 को ‘इचिरो ओकुरा’ के दाह-संस्कार के बाद 23 अगस्त की सुबह विमान नेताजी और सिदेयी को लेकर ताईपेह से मंचुरिया की ओर रवाना हुआ होगा। जब विमान सकुशल दाईरेन में उतर गया होगा और रूसियों के साथ नेताजी का सम्पर्क कायम हो गया होगा, तब जाकर जापान ने विमान दुर्घटना में नेताजी की मृत्यु की खबर को प्रसारित किया होगा

       जहाँ तक जीप पर नेताजी के अलावे ‘चार’ और व्यक्तियों के सवार होने की बात है, इनमें एक तो सिदेयी ही रहे होंगे; दूसरे, ओम्स्क शहर से आये आजाद हिन्द सरकार के कौन्सुल जेनरल काटोकाचु रहे होंगे। बाकी दो में से- हो सकता है- एक स्थानीय ‘मार्गदर्शक’ हो और दूसरा काटोकाचु के साथ आया कोई रूसी अधिकारी।

                जहाँ तक उस विमान की बात है, बताया जाता है कि वह विमान टोक्यो लौटते वक्त समुद्र के ऊपर दुर्घटनाग्रस्त हो गया था। नेताजी को सकुशल गंतव्य तक पहुँचाने का मिशन पूरा करने के बाद पायलट और को-पायलट ने- सबूत मिटाने के लिए- विमान सहित समुद्र में ‘जलसमाधि’ लेने का निर्णय लिया हो, तो इसमें कोई आश्चर्य भी नहीं।

       सिदेयी चूँकि नेताजी के साथ थे, अतः अनुमान लगाया जा सकता है कि वे भी नेताजी के साथ सदा के लिए अज्ञातवास में चले गये होंगे।

      

विजयलक्ष्मी पण्डित मास्को से क्या खबर लायीं थीं?

       जब देश आजाद हुआ, तब नेहरूजी की बहन विजयलक्ष्मी पण्डित मास्को में थीं। उन्हें सोवियत संघ में भारत की राजदूत घोषित कर दिया जाता है।

       जैसा कि बताया जाता है- मास्को से लौटकर एकबार पालम हवाई अड्डे पर श्रीमती पण्डित ने कहा- वे सोवियत संघ से ऐसी खबर लायी हैं, जिसे सुनकर देशवासियों को उतनी ही खुशी मिलेगी, जितनी की आजादी से मिली थी।

       कूटनीति के अनुसार, विदेश से लायी गयी किसी बड़ी खबर को आम करने से पहले (राजदूत को) देश के प्रधानमंत्री और विदेशमंत्री से सलाह लेनी पड़ती है। भारत के प्रधानमंत्री और विदेशमंत्री- दोनों नेहरूजी ही हैं। सो जाहिर है, विजयलक्ष्मी पण्डित फिर कभी वह आजादी के समान प्रसन्नता देने वाली खबर देशवासियों को नहीं सुना पायीं।

       इसी कहानी का एक दूसरा संस्करण भी है, जिसके अनुसार संविधान सभा में श्रीमती पण्डित कहती हैं कि उनके पास एक महत्वपूर्ण समाचार है, जो सारे देश में बिजली की तरंग प्रवाहित कर सकती है। इस पर नेहरूजी उन्हें बैठ जाने का ईशारा करते हैं।

       वह घटनाक्रम या बात चाहे जो भी रही हो, मगर इतना है कि-

1. विजयलक्ष्मी पण्डित को नेहरूजी मास्को से हटाकर वाशिंगटन भेज देते हैं- यानि उन्हें अमेरीका का राजदूत बना दिया जाता है। और

2. 1970 में गठित ‘खोसला आयोग’ इस विषय पर बयान देने के लिए श्रीमती पण्डित को बुलाता है, मगर वे उपस्थित नहीं होतीं।

      

डॉ. राधाकृष्णन का राजदूत से उपराष्ट्रपति बनना: माजरा क्या था?

       मास्को में भारत के अगले राजदूत बनकर जाते हैं- डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन।

       स्तालिन अब भी सोवियत संघ के राष्ट्रपति हैं। वे अक्सर राधाकृष्णन से मिलते हैं और दर्शनशास्त्र पर चर्चा करते हैं।

       प्रचलित कहानी के अनुसार, स्तालिन ने राधाकृष्णन को साइबेरिया जाकर नेताजी को ‘देखने’ की अनुमति प्रदान कर दी थी। उन्हें कुछ दूरी से नेताजी को देखना था- बातचीत नहीं करनी थी।

       इस कहानी के एक दूसरे संस्करण के अनुसार, डॉ. राधाकृष्णन मास्को में नेताजी से मिले थे और नेताजी ने बाकायदे उनसे अनुरोध किया था कि वे उनकी (नेताजी की) भारत वापसी की व्यवस्था करें। 

       सच्चाई चाहे जो हो, मगर इतना सच है कि भारत में इन खबरों ने ऐसा जोर पकड़ा कि डॉ. राधाकृष्णन को मास्को से बुलाना पड़ गया।

यहाँ तक तो बात सामान्य है- वह खबर एक अफवाह हो सकती है।

मगर इसके बाद नेहरूजी राधाकृष्णन को अचानक भारत का उपराष्ट्रपति बनवा देते हैं। जबकि काँग्रेस में उनसे वरिष्ठ कई नेता मौजूद हैं, जिनका स्वतंत्रता संग्राम में भारी योगदान रहा है।

मौलाना आजाद के मुँह से निकलता भी है- क्या हम सब मर गये हैं?

बाद के दिनों में ‘खोसला आयोग’ डॉ. राधाकृष्णन को भी सफाई देने के लिए बुलाता है। वे अस्पताल में आरोग्य लाभ कर रहे हैं, मगर ‘डिक्टेट’ करके वे अपना बयान टाईप करवा सकते थे- कि वह अफवाह सच्ची थी या झूठी; या आयोग खुद चेन्नई जाकर अस्पताल में उनकी गवाही ले सकता था... मगर ऐसा कुछ नहीं होता।

ऐसा नहीं है कि डॉ. राधाकृष्णन ने कभी कुछ कहा ही नहीं होगा। कलकत्ता विश्वविद्यालय के डॉ. सरोज दास और डॉ. एस.एम. गोस्वामी का कहना था कि डॉ. राधाकृष्णन ने उनसे नेताजी के रूस में होने की बात स्वीकारी थी।

 

 

साइबेरिया जेल का खिल्सायी मलंग

सोवियत साम्यवादी पार्टी के क्राँतिकारी सदस्य तथा भारत की साम्यवादी पार्टी के संस्थापकों में से एक अबनी मुखर्जी साइबेरिया की जेल में नेताजी के बगल वाले सेल में ही बन्द थे।

जेल में नेताजी खिल्सायी मलंग के नाम से जाने जाते थे।

ये बातें उन्होंने अपने बेटे जॉर्जी मुखर्जी को बतायी थीं और बाद में जॉर्जी ने भूतपूर्व राजदूत सत्यनारायण सिन्हा को ये बातें बतायीं।

अबनी, वीरेन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय (सरोजिनी नायडु के भाई) के साथी थे। दोनों को स्तालिन ने 1937 से ही कैद कर रखा था। बाद में दोनों को स्तालिन मरवा देते हैं।

श्री सिन्हा भारत आकर इसे एक ताजी खबर समझकर नेहरूजी को इसके बारे में बताते हैं। मगर वे चकित रह गये यह देखकर कि खबर पर प्रसन्न होने के बजाय नेहरूजी उन्हें डाँटना शुरु कर देते हैं।

तब से दोनों के बीच सम्बन्ध बिगड़ जाते हैं। श्री सिन्हा ने इस घटना का जिक्र अपनी किताब में किया है। खोसला आयोग को भी उन्होंने इसकी जानकारी दी थी। 

 

अय्यर का नोट

1952 में एस.ए. अय्यर टोक्यो यात्रा पर जाते हैं। वहाँ से लौटकर एक व्यक्तिगत नोट वे नेहरूजी को सौंपते हैं, जो इस प्रकार है:

‘मैंने इसबार एक बहुत ही महत्वपूर्ण जानकारी एकत्र की है। कर्नल टाडा ने मुझे बताया कि युद्ध के अन्त में जब जापान ने आत्मसमर्पण किया, तब तेराउचि ने नेताजी की मदद की जिम्मेवारी ली और मुझे (टाडा को) काटा-काना (चन्द्र बोस) के पास उन्हें रूसी सीमा पर पहुँचने की सूचना देने के लिए भेजा- वहाँ उन्हें सारी मदद मिल जायेगी। व्यवस्था की गयी कि चन्द्र बोस सिदेयी के विमान से जायेंगे। जेनरल सिदेयी दाईरेन तक चन्द्र बोस की देख-भाल करेंगे, उसके बाद उन्हें अपने बल पर रूसियों से सम्पर्क करना होगा। जापानी दुनिया के सामने घोषणा कर देंगे कि नेताजी दाईरेन से लापता हो गये। इससे मित्रराष्ट्र वालों की नजरों में वे (जापानी) बरी हो जायेंगे।’

       कर्नल टाडा के इस कथन से अनुमान लगाया जा सकता है कि-

16 से 19 अगस्त 1945, शाम चार बजे तक जापान की योजना सिर्फ इतनी थी कि नेताजी को दाईरेन में उतारकर ‘नेताजी के लापता होने’ की खबर प्रसारित कर देनी है। यह आसान था।

19 अगस्त को शाम चार बजे नानमोन अस्पताल में ‘इचिरो ओकुरा’ नामक एक ताईवानी सैनिक की मौत हो जाती है और किसी के दिमाग में यह योजना कौंधती है कि क्यों न ‘इचिरो ओकुरा’ के अन्तिम संस्कार को नेताजी का संस्कार बता दिया जाय?

नयी योजना काफी जल्दीबाजी में बनी होगी और इसलिए न तो हवाई पट्टी पर विमान-दुर्घटना के चिन्ह छोड़े जा सके, न ए.टी.सी. के ‘लॉगबुक’ में दुर्घटना की प्रविष्टि बनायी जा सकी, और न ही सिदेयी, ताकिजावा और आयोगी के शवों के (गायब होने के) बारे में कोई कहानी गढ़ी जा सकी।

 

नेहरूजी को माउण्टबेटन की चेतावनी

       माउण्टबेटन के बुलावे पर नेहरूजी जब 1946 में (भावी प्रधानमंत्री के रूप में) सिंगापुर जाते हैं, तब गुजराती दैनिक ‘जन्मभूमि’ के सम्पादक श्री अमृतलाल सेठ भी उनके साथ होते हैं।

लौटकर श्री सेठ नेताजी के भाई शरत चन्द्र बोस को बताते हैं कि एडमिरल लुई माउण्टबेटन ने नेहरूजी को कुछ इन शब्दों में चेतावनी दी है-

‘हमें खबर मिली है कि बोस विमान दुर्घटना में नहीं मरे हैं, और अगर आप जोर-शोर से उनका यशोगान करते हैं और आजाद हिन्द सैनिकों को भारतीय सेना में फिर से शामिल करने की माँग करते हैं, तो आप नेताजी के प्रकट होने पर भारत को उनके हाथों में सौंपने का खतरा मोल ले रहे हैं।’

       इस चेतावनी के बाद नेहरूजी सिंगापुर के ‘शहीद स्मारक’ (नेताजी द्वारा स्थापित) पर माल्यार्पण का अपना पूर्वनिर्धारित कार्यक्रम रद्द कर देते हैं। बाद में वे कभी नेताजी की तारीफ नहीं करते; प्रधानमंत्री बनने पर आजाद हिन्द सैनिकों को भारतीय सेना में शामिल नहीं करते, नेताजी को ‘स्वतंत्रता-सेनानी’ का दर्जा नहीं दिलवाते, और... जैसाकि हम और आप जानते ही हैं... हमारी पाठ्य-पुस्तकों में स्वतंत्रता-संग्राम का इतिहास लिखते वक्त इसमें नेताजी और उनकी आजाद हिन्द सेना के योगदान का जिक्र न के बराबर किया जाता है।

       (उल्लेखनीय है कि 15 से 18 जुलाई 1947 को कानपुर में आई.एन.ए. के सम्मेलन में नेहरूजी से इस आशय का अनुरोध किया गया था कि आजादी के बाद आई.एन.ए. (आजाद हिन्द) सैनिकों को नियमित भारतीय सेना में वापस ले लिया जाय, मगर नेहरूजी इसे नहीं निभाते; जबकि मो. अली जिन्ना पाकिस्तान गये आजाद हिन्द सैनिकों को नियमित सेना में जगह देकर इस अनुरोध का सम्मान रखते हैं।) 

      

हमें सुभाष बोस का इस्तेमाल करना होगा

जादवपुर विश्वविद्यालय की प्रो. पूरबी रॉय एशियाटिक सोसायटी के तीन सदस्यीय दल की एक सदस्या के रुप में ‘ओरिएण्टल इंस्टीच्यूट’, मास्को जाती हैं- 1917 से 1947 तक के भारतीय दस्तावेजों के अध्ययन के लिए (शोध का विषय है- भारत की कम्यूनिस्ट पार्टी का इतिहास)।

यह 1996 की बात है।

उन्हें पता चलता है कि साइबेरिया के ओम्स्क शहर में, जहाँ कि आजाद हिन्द सरकार का कौन्सुलेट था, सेना की आलमारियों में नेताजी से सम्बन्धित काफी दस्तावेज हैं और भारत सरकार के एक आधिकारिक अनुरोध पर ही उसे शोध के लिए खोल दिया जायेगा।

प्रो. रॉय पत्र लिखकर इस बात की सूचना भारत सरकार को देती हैं।

पत्र के जवाब में उनका शोध रोक दिया जाता है (शोध का खर्च सरकार ही उठा रही थी)। उन्हें बुला लिया जाता है और दुबारा मास्को नहीं जाने दिया जाता।

हालाँकि इस बीच प्रो. रॉय एक महत्वपूर्ण दस्तावेज हासिल करने में सफल रहती हैं। वह दस्तावेज है- मुम्बई में नियुक्त (सोवियत गुप्तचर संस्था) के.जी.बी. के एक एजेण्ट की रिपोर्ट, जिसमें भारत की राजनीतिक परिस्थितियों का आकलन करते हुए एक स्थान पर कहा जा रहा है:

.... नेहरू या गाँधी के साथ काम करना सम्भव नहीं है, हमें सुभाष बोस का इस्तेमाल करना ही होगा।

(श्वेतलाना स्तालिन की सौतेली बेटी हैं- उनकी माँ स्तालिन की सचिव रहीं थीं।