4.2(क) अणुबम पर अतिरिक्त जानकारी

 

    यूँ तो अणुबम की कहानी की शुरुआत 1932 में उसी दिन से हो गयी थी, जिस दिन चैडविक ने परमाणु के तीसरे कण न्यूट्रॉन की खोज की थी। मगर मुख्य रुप से यह अल्बर्ट आइंस्टाईन की ‘थ्योरी’ और एनरिको फर्मी के ‘प्रैक्टिकल’ का परिणाम है।

संयोग देखिये- आइंस्टाईन हिटलर के अत्याचारों से त्रस्त होकर जर्मनी से भागकर अमेरीका पहुँचे हैं और फर्मी मुसोलिनी के अत्याचारों से त्रस्त होकर इटली से भागकर अमेरीका पहुँचे हैं।

1934 में हंगरी के भौतिकशास्त्री लियो जिलार्ड के प्रयोगों से यह सिद्ध होता है कि न्यूट्रॉनों की बौछार से परमाणु के नाभिक को तोड़ा जा सकता है। टूटे नाभिकों से न्यूट्रॉन छिटक कर अलग हो जाते हैं और ये मुक्त न्यूट्रॉन अन्य नाभिकों को भी तोड़ सकते हैं। इस प्रकार, एक शृंखलाबद्ध अभिक्रिया (Chain Reaction) की शुरुआत की जा सकती है। इस अभिक्रिया में परमाणु के द्रव्यमान का एक बहुत-ही छोटा-सा अंश नष्ट हो जाता है। नष्ट होने वाले इस द्रव्यमान के बदले- सिद्धान्ततः- थोड़ी ऊर्जा पैदा होनी चाहिए। उस ऊर्जा की मात्रा भला कितनी होगी?

इसका उत्तर आइंस्टाईन देते हैं- प्रकाश की गति (प्रायः 3,00,000 किलोमीटर प्रति सेकण्ड) के वर्ग को (नष्ट होने वाले) द्रव्यमान की मात्रा से गुणा करने पर जो राशि प्राप्त होगी, उतनी ही मात्रा में ऊर्जा पैदा होनी चाहिए। इसे सूत्र में कहा जायेगा- E = mc2, जहाँ E= ऊर्जा (Energy), m= द्रव्यमान (Mass) और c= प्रकाश की गति (Candela)। यह एक अकल्पनीय मात्रा है। मगर थ्योरी तो यही कहती है।

हिटलर-मुसोलिनी के अत्याचारों से त्रस्त होकर जिलार्ड भी ब्रिटेन में शरण लेते हैं और 1935 में अपने शोध के कागजात ब्रिटिश सरकार को सौंपते हैं।

‘थ्योरी’ को ‘प्रैक्टिकल’ में बदलने के प्रयास शुरु होते हैं। उच्च क्षमता वाले न्यूट्रॉनों की बौछार परमाणु नाभिकों पर की जाती है। नाभिक टूटते हैं; न्यूट्रॉन भी मुक्त होते हैं, मगर चैन रिएक्शन की शुरुआत नहीं होती।

एक अन्य वैज्ञानिक सुश्री लिज मेइट्नस पता लगाती हैं कि चैन रिएक्शन के लिए उच्च क्षमता नहीं, बल्कि निम्न क्षमता वाले न्यूट्रॉनों की जरुरत है।

यूरोप में विश्वयुद्ध के बादल छा रहे हैं। जिलार्ड तथा कुछ वैज्ञानिक इस ऊर्जा को बम में बदलने के बारे में सोचने लगते हैं। मगर इसके लिए आवश्यकता है- अत्याधुनिक तकनीक, बड़ी मात्रा में धन और अनुकूल परिस्थितियों की। अमेरीका के पास ये तीनों चीजें हैं।

1939 में आइंस्टाईन और जिलार्ड के संयुक्त आग्रह पर रूजवेल्ट परमाणु शक्ति के विकास के लिए संसाधन खर्च करने को राजी हो जाते हैं।

मैनहटन प्रोजेक्ट नाम से एक गोपनीय संयंत्र की स्थापना होती है। शुरु में खर्च के लिए राशी तय की जाती है- 6,000 डॉलर। 1945 तक यह रकम बढ़कर हो जाती है- 1,20,00,00,00,000 (एक खरब, बीस अरब) डॉलर।

यूरोप में विश्वयुद्ध चल रहा है।

इधर अमेरीका में दुनियाभर के वैज्ञानिक, इंजीनियर और सैन्य अधिकारी मैनहटन प्रोजेक्ट में जुटे हुए हैं।

यूरेनियम के एक अत्यन्त दुर्लभ समस्थानिक (आईसोटोप) यूरेनियम-235 की व्यवस्था की जाती है। अभिक्रिया को नियंत्रित रखने की व्यवस्था की जाती है। और भी बहुत तरह की परेशानियाँ हैं। प्रोजेक्ट से जुड़े कई वैज्ञानिकों को तो विश्वास ही नहीं है कि ऐसा कोई बम बन सकता है।

मगर 2 सितम्बर 1942 को एनरिको फर्मी के नेतृत्व में वैज्ञानिकों का दल नियंत्रित चैन रिएक्शन कराने में सफल हो जाते हैं।

राष्ट्रपति भवन, वाशिंगटन में सांकेतिक भाषा में सन्देश पहुँचता है-

इतावली नाविक ने किनारा पा लिया।

जल्दी ही रॉबर्ट ओपेनहाइमर के नेतृत्व में असली बम भी बना लिया जाता है।

16 जुलाई 1945 को इसका परीक्षण होता है न्यू मेक्सिको के निकट अलामागोर्डो के मरूस्थल में।

बहुत ही तेज रोशनी की चमक पैदा होती है, और इसके मिनट भर बाद प्रचण्ड आवाज।

मेढ़क के छाते के समान धुएँ का विशाल गुबार ऊपर ऊठकर 40,000 फीट की ऊँचाई तक जा पहुँचता है।

इसके बाद 6 और 9 अगस्त को बम की मारक क्षमता का प्रयोग जापान पर होता है, जिसकी थोड़ी चर्चा हम ऊपर कर चुके हैं।

एक तो बम का प्रहार ‘नागरिकों’ पर होता है; दूसरे, ‘परम्परागत’ युद्ध से ही जापान को महीने भर में हराया जा सकता था, और तीसरे, जापान दो सामान्य शर्तों पर ‘आत्मसमर्पण’ करने को राजी था, अतः इस अणुबम प्रहार की दुनियाभर में निन्दा होती है। इसे ‘युद्धापराध’ और ‘मानवता के खिलाफ अपराध’ बताया जाता है।

सर्वप्रथम आलोचना करनेवालों में आइंस्टाईन और जिलार्ड भी हैं, जिनके आग्रह पर इस बम का जन्म हुआ था।

सैन्य अधिकारी वैज्ञानिकों पर दोष मढ़ते हैं कि उनके पास एक खिलौना था और वे इसे चलाकर देखना चाहते थे। वैज्ञानिक बमप्रहार को राजनीतिक और कूटनीतिक फैसला बताते हैं, न कि वैज्ञानिक या सैन्य फैसला।

जिलार्ड ने कहा- अगर जर्मनी ने पहले बम बनाकर इसका प्रयोग कर लिया होता, तो क्या बाद में बमप्रहार को युद्धापराध बताकर हम इससे जुड़े जर्मनों को फाँसी पर न लटका देते?

मगर अमेरीकियों का दो अणुबम प्रहार माफ है। समर्थ को दोष लगता भी तो नहीं।

हिरोशिमा-नागासाकी में बमप्रहार से जीवित बचे लोगों को ‘हिबाकुशा’ कहा गया- ‘विस्फोट-प्रभावित लोग’। 2005 तक 2,66,000 हिबाकुशा थे।

अणुबम के जख्म से घायल जापान बाद के दिनों में आण्विक हथियारों से दूरी बनाये रखने की नीति- पैसिफिज्म- को अपनाता है। 

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       आज हमारी दुनिया में परमाणु हथियारों का जखीरा इतना बड़ा है कि हम अपनी पृथ्वी को एक-दो बार नहीं, दस-बीस बार तबाह कर सकते हैं।

जरा सोचिए, अपनी ही पृथ्वी को, अनन्त ब्रह्माण्ड का इकलौता नीला ग्रह, जहाँ ‘जीवन’ की लौ टिमटिमा रही है...