4.6 वह रहस्यमयी विमान दुर्घटना: परिस्थितिजन्य साक्ष्य क्या कहते हैं

 विमान यात्रा का असली उद्देश्य क्या था?

       सोवियत संघ 10 अगस्त 1945 को मंचुरिया पर आक्रमण करता है। इसके सप्ताह भर बाद अचानक 17 अगस्त को सोवियत आक्रमण से निपटने के लिए ले. जेनरल सिदेयी की दाईरेन में नियुक्ति की जाती है और उन्हें यथाशीघ्र वहाँ पहुँचने के लिए कहा जाता है। यह एक बेतुकी बात है। क्योंकि मंचुरिया में तैनात जापानी सेना ने इस आक्रमण का प्रतिरोध किया ही नहीं है। 

       दूसरी बात, जापान 15 अगस्त को आधिकारिक रुप से आत्मसमर्पण कर चुका है और ब्रिटिश-अमेरीकी फौजें एक-एक कर टोक्यो के महत्वपूर्ण संस्थानों को अपने नियंत्रण में ले रही है। टोक्यो का वायु मार्ग भी उनके नियंत्रण में चला गया है। ऐसे में, नेताजी एक जापानी बमवर्षक विमान में बैठकर टोक्यो जा रहे थे- जापान सरकार से मशविरा करने- एक अविश्वसनीय बात है।

       सच यह है कि वह विमान विशेष रुप से नेताजी को मंचुरिया पहुँचाने ही जा रहा था, ताकि सोवियत सैनिकों की मदद से वे सोवियत संघ में प्रवेश कर सकें।

 

क्या है मंचुरिया का पेंच?

       मंचुरिया एक समृद्ध प्रान्त है, जहाँ जापान ने न केवल ढेरों उद्योग-धन्धे खड़े कर रखे हैं, बल्कि युद्ध के साजो-सामान का बड़ा जखीरा भी वहाँ इकट्ठा कर रखा है। जापान नहीं चाहता है कि यह सब कुछ उसके ‘शत्रु’ ब्रिटेन और अमेरीका के हाथ लगे। उनके हाथ लगने से तो बेहतर है कि यह सब कुछ उसके ‘मित्र’ सोवियत संघ को मिल जाय। अतः दूसरे अणुबम प्रहार के अगले दिन जब 10 अगस्त 1945 को जापान आत्मसमर्पण का ‘निर्णय’ ले लेता है, तब उसी दिन उसकी ‘मौन सहमति’ से ही सोवियत संघ जापान पर युद्ध की घोषणा करते हुए मंचुरिया को अपने आधिपत्य में लेने के लिए अपनी सेना को आगे बढ़ाता है। 

 

ले. जेनरल ही सिदेयी ही क्यों?

       निम्न तीन गुणों के कारण ले. जेनरल सिदेयी को नेताजी का संरक्षक बनाया गया है- 1. वे रूसी भाषा के जानकार और ‘सोवियत विशेषज्ञ’ हैं, अतः वे मंचुरिया में सोवियत सैनिकों को समझा सकते हैं कि वे किन्हें साथ लेकर आये हैं; 2. वे युद्ध के कुशल रणनीतिकार हैं, अतः अगर नेताजी सोवियत संघ में कोई नयी सेना गठित करते हैं, तो वे नेताजी के दाहिने हाथ साबित होंगे; 3. वे नेताजी के भक्त हैं, अतः जहाँ (पराजय की इस दौर में) उनके कई समकक्ष ‘हाराकिरी’ कर रहे हैं, वहीं वे अपना जीवन नेताजी के लिए न्यौछावर करने का फैसला लेते हैं। (हाराकिरी- पेट में चाकू घोंपकर आत्महत्या करने की जापानी प्रथा।)

 

‘मृत’ दिखाना क्यों जरूरी था?

       जर्मन आक्रमण के बाद सोवियत संघ ‘मित्रराष्ट्र’ में शामिल हो गया था। इस प्रकार, वह ब्रिटेन और अमेरीका के साथ एक ही पाले में है। अगर नेताजी ‘घोषित’ रुप से वहाँ शरण ले लेते हैं, तो ब्रिटेन और अमेरीका मित्रराष्ट्र की दुहाई देकर सोवियत संघ से नेताजी की माँग करेंगे; या उसपर भारी दवाब बनायेंगे।

अतः नेताजी को ब्रिटिश-अमेरीकी हाथों/आँखों से बचाने के लिए बहुत ही ऊँचे स्तर पर- (बहुत सम्भव है कि सीधे स्तालिन, तोजो और नेताजी के बीच)- यह सहमति बनी होगी कि नेताजी ‘गुप्त’ रुप से सोवियत संघ में शरण लेंगे, जापान नेताजी को ‘मृत’ घोषित करेगा और स्तालिन सोवियत संघ के अन्दर नेताजी के ‘जिक्र’ पर पाबन्दी लगा देंगे।

या फिर, जापान ने दो जिम्मेवारी ली होगी- एक, नेताजी को मृत दिखाना और दो, उनको मंचुरिया पहुँचाना। ‘शरण’ का मामला जापान ने पूरी तरह नेताजी पर छोड़ दिया होगा- कि सोवियत सैनिकों से मिलकर आप शरण की व्यवस्था कीजिये। हाँ, संरक्षक के रूप में हमारे जेनरल सिदेयी आपके साथ रहेंगे।

जो भी हो, ताईपेह में नेताजी को मृत दिखाने का ‘नाटक’ खेला जाता है, सभी किरदारों को ‘संवाद’ दे दिये जाते हैं- कि किसे क्या बोलना है और बेशक, सबने यह ‘शपथ’ भी ली होगी कि वे आजीवन इस राज को राज ही रखेंगे।

इस प्रकार, नेताजी सोवियत संघ में शरण भी ले लेते हैं और ब्रिटेन तथा अमेरीका सोवियत संघ से नेताजी को माँग भी नहीं पाते हैं।    

 

यह चमत्कार कैसे हुआ?

       नेताजी को सोवियत संघ पहुँचाने के लिए नेताजी के साथ तीन लोगों को मंचुरिया तक जाना जरूरी है- सिदेयी, पायलट और को-पायलट। और चमत्कार देखिये, ठीक इन्हीं चार लोगों को दुर्घटना में मृत बताया जाता है- बाकी सभी मामूली चोटों/खरोचों/झुलसन के साथ बच जाते हैं। (हालाँकि कहीं-कहीं रेडियो ऑपरेटर और गनर को भी मृत बाताया जाता है- इसका मतलब है कि बमवर्षक विमान में पायलट, को-पायलट के साथ इनका भी रहना आवश्यक होता है।)

       ध्यान रखिये, वह एक बमवर्षक विमान था- उसमें भले कुछ सीट थे, मगर सीट-बेल्ट तो बिल्कुल नहीं थे। कुछ यात्री विमान के फर्श पर बैठे थे। जब विमान गोता खा रहा था, तब हर यात्री को सिमटकर चालक कक्ष (कॉकपिट) के पास जमा हो जाना था। ऐसे में, सिर्फ उन्हीं लोगों का दुर्घटना में मृत होना, जिनकी सोवियत संघ पहुँचने की सम्भावना थी, एक चमत्कार ही कहा जायेगा।

       हबिब के अनुसार, वे नेताजी के ठीक पीछे-पीछे जलते हुए विमान से बाहर आये थे। ऐसे में, नेताजी का गम्भीर रुप से जलना और हबिब का साफ बच जाना भी चमत्कार ही लगता है।

       हबिब अपने मामूली जले हाथों को दिखाकर बताते हैं कि नेताजी के जलते कपड़े हटाने में उनके हाथ जले हैं। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि उनके हाथों में ‘जलने के निशान’ पहले से मौजूद हों और इस ‘निशान’ के चलते ही उन्हें नेताजी का ‘सहयात्री’ चुना गया हो? वर्ना नेताजी सहयात्री के रुप में आबिद हसन को भी तो चुन सकते थे, जो उनके साथ नब्बे दिनों की खतरनाक पनडुब्बी यात्रा कर जर्मनी से जापान तक आये थे!  

 

क्या था मृत्यु का सही समय?

       क्या ऐसा हो सकता है कि नेताजी- जैसे महान शख्सीयत की मृत्यु हो और कमरे में मौजूद दो महत्वपूर्ण लोग उनकी मृत्यु का सही समय बाद में भूल जायें?

       डॉ. योशिनी जब हाँगकाँग के स्टेनली जेल में बन्द थे, तब 19 अक्तूबर 1946 को ब्रिटिश जाँच एजेन्सी को वे नेताजी की मृत्यु का समय 18 अगस्त 1945, रात्री 11:00 बजे का बताते हैं। जबकि पाकिस्तान में बस गये और पाकिस्तानी सेना में अधिकारी बन गये कर्नल हबिबुर्रहमान नेताजी की मृत्यु का समय कभी 18 अगस्त, शाम 5:00 बजे; कभी 19 अगस्त, दोपहर 12:00 बजे और कभी 19 अगस्त, शाम 4:00 बजे का बताते हैं।

       क्या पता, उन्होंने जान-बूझ कर ऐसा किया हो ताकि शक की गुंजाईश बनी रहे और जाँच आयोग गहराई से जाँच कर सही तथ्यों का पता लगा ले- खुद तो वे सच बता नहीं सकते थे- क्योंकि उन्होंने वचन दिया होगा नेताजी को, कि वे राज को राज रखेंगे।

       और एक बात, ‘इचिरो ओकुरा’ के नाम से जिस शव का संस्कार किया गया, अगर वह ‘नेताजी’ का ही शव था, तो मृत्यु-प्रमाणपत्र में मृत्यु की तारीख 19 अगस्त और मृत्यु का समय 4:00 पी.एम. लिखने के पीछे भला क्या तुक बनता है? क्यों नहीं योशिनी इस प्रमाणपत्र में सही समय- 18 अगस्त 1945, 11:00 पी.एम.- दर्ज करते हैं? जाहिर है, यह शव ‘इचिरो ओकुरा’ नामक एक ताईवानी सैनिक का ही है, जिसकी मृत्यु नानमोन सैन्य अस्पताल में 19 अगस्त 1945 को शाम 4:00 बजे हुई थी।    

 

बाकी तीनों/पाँचों शव कहाँ गये?

       गवाहों के बयानों में आपने ध्यान दिया होगा कि ताईपेह म्यूनिसपैल्टी के हैल्थ एण्ड हाईजीन ब्यूरो के पास एक ‘इचिरो ओकुरा’ का शव तो ले जाया गया था, मगर सिदेयी, ताकिजावा (पायलट) और आयोगी (को-पायलट) के शव नहीं ले जाये गये थे। इसी प्रकार, ताईपेह नगरपालिका के शवदाहगृह के क्रिमेशन रजिस्टर में ‘इचिरो ओकुरा’ का नाम तो दर्ज है, मगर सिदेयी, ताकिजावा और आयोगी के नाम दर्ज नहीं हैं। अगर दोनों सैनिकों- रेडियो ऑपरेटर तोमिनागा और गनर (जिसका नाम नहीं पता) की भी मृत्यु उस दुर्घटना में हुई थी, तो उनके शव भी नगरपालिका नहीं ले जाये गये थे।

       (जिस अन्त्येष्टि पुस्तिका- क्रिमेशन रजिस्टर की बात की जा रही है, वह 25 पन्नों की एक सूची है। इसमें उन 273 जापानी, चीनी और अँग्रेज लोगों के नाम दर्ज हैं, जिनकी अन्त्येष्टि ताईपेह नगरपालिका के शवदाहगृह में 17 अगस्त 1945 से 27 अगस्त 1945 के बीच सम्पन्न हुई।)  

       इसे आप क्या कहेंगे? क्या जापानी सेना अपने जेनरल रैंक के एक अधिकारी, एक मेजर, एक वारण्ट ऑफिसर और दो सैनिकों का अन्तिम संस्कार करना भूल गयी?  

 

कौन है यह ‘इचिरो ओकुरा’?

       जैसा कि मृत्यु-प्रमाणपत्र से ही जाहिर है- 22 अगस्त 1945 को जिस शव का अन्तिम संस्कार किया जाता है, वह ताईवान गवर्नमेण्ट मिलिटरी के एक टेम्प्रोरी सिपाही ‘इचिरो ओकुरा’ का है, जिसकी मृत्यु नानमोन सैन्य अस्पताल में 19 अगस्त 1945 को शाम 4 बजे हृदयाघात से हुई थी।

       चूँकि इचिरो ओकुरा एक ‘बौद्ध’ है, इसलिए बौद्ध-परम्परानुसार उसका अन्तिम संस्कार मृत्यु के तीसरे दिन किया जाता है। (बौद्ध परम्परा में माना जाता है कि मृत्यु के बाद तीन दिनों तक शरीर से अदृश्य विकिरण निकलते रहते हैं।)

       इसी इचिरो ओकुरा के मृत्यु-प्रमाणपत्र को नेताजी का मृत्यु-प्रमाणपत्र बताया जाता रहा और इसी इचिरो ओकुरा के शव का अस्थिभस्म टोक्यो के रेन्कोजी मन्दिर में रखा हुआ है।  

       अगर वह ‘शव’ नेताजी का होता, तो हिन्दू परम्परानुसार उसका अन्तिम संस्कार ‘यथाशीघ्र’ यानि 19 या 20 अगस्त को होता और पूरे ‘राजकीय सम्मान’ के साथ होता; क्योंकि नेताजी ‘स्वतंत्र भारत की अन्तरिम सरकार’ के सर्वेसर्वा थे और इस सरकार को जापान सहित कुल 9 स्वतंत्र राष्ट्रों की मान्यता प्राप्त थी।

दूसरी बात, अगर वह भस्म नेताजी का होता, तो नेताजी की पत्नी और नेताजी के परिवार वाले कब के उस भस्म को टोक्यो से ले आये होते।   

 

‘दूसरा’ मृत्यु-प्रमाणपत्र क्यों?

       ‘इचिरो ओकुरा’ के मृत्यु-प्रमाणपत्र को पूरे 43 वर्षों तक नेताजी का मृत्यु-प्रमाणपत्र बताया जाता रहा, जिसमें मृतक का नाम ‘इचिरो ओकुरा’ और मृत्यु का कारण ‘कार्डियाक अरेस्ट’ (या हर्ट-फेलियर) दर्ज था। इसके बाद, 18 अगस्त 1988 को एक नया मृत्यु-प्रमाणपत्र जारी किया जाता है, जिसमें मृतक का नाम काटा काना (चन्द्र बोस) और मृत्यु का कारण थर्ड डिग्री बर्न लिखा गया है। इस प्रमाणपत्र पर भी डॉ. योशिनी और डॉ. सुरुता के हस्ताक्षर करवाये जाते हैं। आजकल इसी प्रमाणपत्र के आधार पर नेताजी को विमान दुर्घटना में मृत साबित किया जाता है। अतः, हर भारतीय के लिए यह जानना जरूरी है कि 18 अगस्त 1945 से 18 अगस्त 1988 तक इचिरो ओकुरा नामक एक ताईवानी बौद्ध सैनिक के मृत्यु-प्रमाणपत्र को ही नेताजी का मृत्यु-प्रमाणपत्र बताया जाता रहा था।

       चूँकि यह प्रमाणपत्र जापानी भाषा में था, इसलिए भारतीयों को पट्टी पढ़ाना और भी आसान था। भला हो मुखर्जी आयोग के जस्टिस मनोज कुमार मुखोपाध्याय का और अनुवादक सन्दीप कुमार सेठ का, जिन्होंने 26-27 जनवरी 2005 को इस मूल प्रमाणपत्र को भली-भाँति जाँचा-परखा और पाया कि इस प्रमाणपत्र का नेताजी से दूर-दूर तक कोई सम्बन्ध नहीं है!

      

यह कैसी गोपनीयता थी?

       गवाह कहते हैं कि जापान सरकार नेताजी की मृत्यु को गुप्त रखना चाहती थी। पहली बात, नेताजी की मृत्यु को गुप्त रखने के पीछे कोई तुक नहीं बनता और दूसरी बात, खुद जापान की सरकारी संवाद संस्था डोमेई न्यूज एजेन्सी 23 अगस्त 1945 को विमान दुर्घटना में नेताजी की मृत्यु की खबर प्रसारित करती है।

       जाहिर है कि जापान सरकार ‘इचिरो ओकुरा’ के शव को ‘राख’ में बदलने तक ही इस खबर को गोपनीय रखना चाहती थी। इधर इचिरो ओकुरा का शव राख में तब्दील हुआ और उधर अगले दिन जापान सरकार ने घोषणा कर दी कि नेताजी की विमान दुर्घटना में मृत्य हो गयी है।

       एक बच्चा भी यह समझ सकता है कि जिस शव का ताईपेह में अन्तिम संस्कार हुआ, वह नेताजी का नहीं, बल्कि ‘इचिरो ओकुरा’ नामक एक ताईवानी सैनिक का था। इसीलिए इस शव के भस्म में बदल जाने के बाद ही जापान ने नेताजी की मृत्यु की घोषणा की।

       तभी तो इस ‘शव’ को नगरपालिका के स्वास्थ्य एवं स्वच्छता विभाग तथा शवदाहगृह के ताईवानी कर्मचारियों को ‘देखने’ नहीं दिया जाता और कम्बल में लिपटे-लिपटे ही शव को भट्ठी में डाल दिया जाता है। कर्नल हबिब भी अस्पताल के कम्बल में ढके-छुपे शव का फोटो खींचते हैं।

 

ताईवानी अखबार क्या कहता है?

        ताईपेह के अखबार सेण्ट्रल डेली न्यूज तथा अन्य अखबारों के 18 से 24 अगस्त 1945 के संस्करणों की माइक्रो फिल्मों का मुखर्जी आयोग ने जनवरी 2005 में अध्ययन किया और पाया कि किसी अखबार में ताईहोकू हवाई अड्डे पर किसी विमान के दुर्घटनाग्रस्त होने की खबर नहीं छपी है। नेताजी और ले. जेनरल सिदेयी की मृत्यु की भी कोई खबर नहीं है।

       आप यह नहीं कह सकते हैं कि शायद ताईवानी लोग नेताजी के नाम से कम परिचित थे, क्योंकि सेण्ट्रल डेली न्यूज में कुछ ही दिनों बाद- 14 सितम्बर 1945 के दिन- भारत में नेताजी के भतीजों की रिहाई की मामूली-सी खबर छपती है!

 

ब्रिटिश-अमेरीकी जाँच क्या कहती है?

       माउण्टबेटन और मैक आर्थर (प्रशान्त क्षेत्र के अमेरीकी कमाण्डिंग जेनरल) द्वारा नियुक्त ‘BACIS’  (British American Counter Intelligence Service) के अधिकारी ताईवान पहुँचते हैं- नेताजी की मृत्यु की असलियत जानने के लिए। उन्हें ताईहोकू हवाई अड्डे पर विमान दुर्घटना का कोई चिन्ह नहीं मिलता, न ही ए.टी.सी. (Air Traffic Control) के लॉग बुक में किसी विमान के दुर्घटनाग्रस्त होने की कोई प्रविष्टि मिलती है। वे सम्बन्धित लोगों से साक्षात्कार भी लेते हैं।

जाँच के बाद वे रिपोर्ट देते हैं कि ऐसी किसी विमान दुर्घटना की सम्भावना रत्ती भर भी नहीं है, और हबिबुर्रहमान ने सच नहीं कहा है- जहाँ तक सम्भव है उन्होंने (हबिब ने) सुभाष बोस को तथ्य छुपाये रखने का वचन दे रखा है।    

 

खुद ताईवानी सरकार क्या कहती है?

       ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ के भारतीय पत्रकार (‘मिशन नेताजी’ से जुड़े) अनुज धर के ई-मेल के जवाब में ताईवान सरकार के यातायात एवं संचार मंत्री लिन लिंग-सान तथा ताईपेह के मेयर ने जवाब दिया था कि 14 अगस्त से 25 अक्तूबर 1945 के बीच ताईहोकू हवाई अड्डे पर किसी विमान के दुर्घटनाग्रस्त होने का कोई भी प्रमाण उपलब्ध नहीं है। (तब ताईहोकू के इस हवाई अड्डे का नाम ‘मात्सुयामा एयरपोर्ट’ था और अब इसका नाम ‘ताईपेह डोमेस्टिक एयरपोर्ट’ है।)

       बाद में 2005 में, ताईवान सरकार के विदेशी मामलों के मंत्री और ताईपेह के मेयर  मुखर्जी आयोग के सामने भी यही बातें दुहराते हैं।

       हाँ, दस्तावेजों के अनुसार, 20 से 23 सितम्बर 1945 के बीच एक अमेरीकी सी-47 मालवाही विमान ताईपेह से 200 समुद्री मील दूर ताईतुंग क्षेत्र में माउण्ट ट्राईडेण्ट के पास जरूर दुर्घटनाग्रस्त हुआ था, जिसमें 26 लोग सवार थे- ज्यादातर फिलीपीन्स जेल से रिहा हुए अमेरीकी युद्धबन्दी।

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       ये तो कुछ बानगी है, जो यह साबित करते हैं कि 18 अगस्त 1945 को ताईहोकू हवाई अड्डे पर न कोई विमान दुर्घटनाग्रस्त हुआ था और न ही उसमें नेताजी की मृत्यु हुई थी। ऐसे और भी साक्ष्य मिल जायेंगे।

इसी प्रकार, नेताजी मंचुरिया होकर सोवियत संघ पहुँचे थे और कई वर्षों तक वहीं थे, इसके भी कई परिस्थितिजन्य साक्ष्य मिलते हैं।