2.3 हिटलर से मोहभंग

   

          नेताजी की योजना के अनुसार जर्मन सैनिकों की वाहिनियों को हिटलर ‘इण्डियन लीज़न’ के झण्डे तले भारत रवाना नहीं करते; जबकि उनकी सेना जून से नवम्बर’ 41 तक लगातार जीतते हुए सोवियत संघ में आगे बढ़ती है 

उधर एशिया में 15 फरवरी 1942 को जापान (धुरी राष्ट्र का तीसरा सदस्य) के हाथों सिंगापुर (जो कि ब्रिटिश साम्राज्यवाद का एक प्रमुख गढ़ है) का पतन हो जाता है। इस घटना को एक संकेत मानकर नेताजी आजाद हिन्द रेडियो पर ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ अन्त तक लड़ते रहने का संकल्प लेते हैं। साथ ही, वे ब्रिटेन के खिलाफ युद्ध की घोषणा भी कर देते हैं। हालाँकि इस घोषणा को अभी ‘सांकेतिक’ ही माना जायेगा; क्योंकि धुरी राष्ट्रों ने अब तक भारत की आजादी के लिए कोई घोषणा जारी नहीं की है।

इस मामले में सबसे पहले जापान पहल करता है और भारत की आजादी के लिए ‘त्रिपक्षीय घोषणा’ का प्रस्ताव रखता है। इससे उत्साहित होकर नेताजी 5 मई 1942 को रोम जाकर मुसोलिनी से मिलते हैं। मुसोलिनी भी सहमत हैं, और भारत की आजादी की घोषणा के साथ-साथ एक ‘स्थानापन्न भारत सरकार’ (Counter India Government) के गठन का विचार वे जर्मनी भेजते हैं।

मगर हिटलर कठोर यथार्थवादी और सैन्यवादी हैं। उनका स्पष्ट मानना है कि जब तक पूर्ण रुप से सुसज्जित एक मुक्ति वाहिनी भारत की सीमा पर युद्ध के लिए तैयार खड़ी नहीं हो जाती, तब तक भारत की आजादी की घोषणा या स्थानापन्न भारत सरकार के गठन का कोई अर्थ नहीं रह जाता। जर्मन कूटनीतिज्ञों के अनुसार, स्थानापन्न या अन्तरिम सरकार को ज्यादा समय तक ‘निर्वात्’ में नहीं रहना चाहिए; और फिलहाल सोवियत संघ में युद्धरत जर्मन सेना भारत के लिए ‘मुक्ति वाहिनी’ की भूमिका निभाने की स्थिति में नहीं है।

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22 जून 1941 को सोवियत संघ पर आक्रमण करते वक्त हिटलर ने अनुमान लगाया था कि अक्तूबर तक मास्को को जीत लिया जायेगा।

नाज़ी सेना क्रूर आक्रमण करते हुए तेजी से आगे बढ़ती भी है। किएव शहर पर कब्जा करने के बाद अक्तूबर-नवम्बर में जब मास्को पर जर्मन तोपें गोले बरसाती हैं, तब वाकई स्तालिन समझौता करने या देश छोड़ने की सोचने लगते हैं। मगर बाद में वे लड़ने का संकल्प लेते हैं, और यह संकल्प युद्ध में निर्णायक (Turning Point) साबित होता है।

6 दिसम्बर को सोवियत संघ पलटवार करता है। (यह प्रतिआक्रमण बर्फबारी शुरु होने के बाद की जाती है, क्योंकि बर्फ में सोवियत सैनिक जर्मनों के मुकाबले बेहतर लड़ सकते हैं।) मास्को के बाहर विश्वयुद्ध की सबसे बड़ी लड़ाई लड़ी जाती है। (सत्तर लाख प्रतिभागी और फ्राँस जितना क्षेत्रफल!)

18 दिसम्बर को हिटलर अपनी सेना को रोक देते हैं- सम्भवतः बर्फ पिघलने के इन्तजार में। इस बीच स्तालिन सोवियत संघ के सभी संयंत्रों/दफ्तरों आदि को साईबेरिया में स्थानान्तरित कर लेते हैं।

’42 के बसन्त में स्तालिनग्राद (अब वोल्गोग्राद) में बीसवीं सदी का सबसे खूनी युद्ध लड़ा जाता है। (एक सोवियत सैनिक की औसत सैन्य आयु चौबीस घण्टे रह जाती है!)

इस पूरे युद्ध में स्तालिन भी कम क्रूरता का परिचय नहीं देते। अब तक सोवियत सैनिकों को एक कदम भी पीछे हटाने का आदेश नहीं था- पीछे हटने वाले सैनिकों को गोली मारने के लिए स्तालिन ने बाकायदे दस्ते (Blocking Detachments) गठित कर रखे थे; मगर स्तालिनग्राद में वे पीछे हटते हुए लड़ते हैं और सफल होते हैं।

नाज़ी सेना की हार की शुरुआत हो जाती है।

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नेताजी की व्यग्रता बढ़ जाती है- उन्हें लगता है, मौका हाथ से निकला जा रहा है। अन्तिम प्रयास के रुप में वे 26 (या 29) मई 1942 को हिटलर से मिलते हैं और कहते हैं- भारत को तत्काल आजाद कराना जरुरी है।

हिटलर का कहना है कि अभी समय नहीं आया है। वे नेताजी को दीवार में टँगे नक्शे तक ले जाते हैं और युद्धरत जर्मन सेना की स्थिति और भारत की सीमा के बीच की विशाल दूरी को दिखलाते हैं। इस दूरी को पाटने में समय लगेगा। बीच में कॉकेशस पर्वतश्रेणी भी है। भारत की आजादी के लिए एक ‘त्रिपक्षीय घोषणा’ और उसके बाद ‘अन्तरिम भारत सरकार’ के गठन के लिए भी वे मना करते हैं। जबकि इतना होने पर ब्रिटेन के खिलाफ नेताजी द्वारा की गयी युद्ध की घोषणा को आधार मिलता।

हिटलर द्वारा भारत की आजादी के लिए सैन्य अभियान को टालने के पीछे कई कारण हो सकते हैं- 1. फिलहाल स्तालिनग्राद में नाज़ी सेना को मिली असफलता के कारण वे नयी जिम्मेवारी लेने से बचना चाहते हैं; 2. सोवियत अभियान को पूरा करने के बाद ही वे भारत की ओर ध्यान देना चाहते हैं; 3. नस्लीय कारणों से हिटलर के मन किसी कोने में ब्रिटिश लोगों के प्रति सम्मान है; (नॉर्डिक नस्ल को वे अन्य नस्लों से बेहतर मानते हैं। डनकिर्क की युद्धभूमि में हिटलर ने विजयी जर्मनों को आदेश दिया था कि ब्रिटिश सैनिकों को वापस लौटने दिया जाय, उन्हें नुकसान न पहुँचाया जाय।) 4. वे ‘इण्डियन लीज़न’ को एक काबिल सेना नहीं मानते (जबकि अन्य जर्मन सेनापतियों की नजर में यह एक काबिल सैन्य टुकड़ी है)।

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नेताजी को जल्दी इसलिए है कि भारत में इस वक्त बगावत की स्थिति है- बस एक चिंगारी की जरुरत है। उन्हें पता है कि भारत में काँग्रेस व अन्य सभी राजनीतिक दलों (साम्यवादियों को छोड़कर- साम्यवादियों ने विश्वयुद्ध की इस नाजुक घड़ी में ब्रिटिश सरकार का हाथ मजबूत करने का फैसला लिया है, ताकि ब्रिटेन साम्यवादी सोवियत संघ के साथ मिलकर नाज़ी हिटलर को हरा सके) के नेताओं का गाँधीजी पर जबर्दस्त दवाब है कि अभी जबकि ब्रिटेन विश्वयुद्ध में उलझा हुआ है, वे इसका फायदा उठाते हुए ब्रिटिश शासन के खिलाफ अन्तिम आन्दोलन छेड़ने की घोषणा कर दें!

गाँधीजी देर कर रहे हैं- विश्वयुद्ध में उलझी ब्रिटिश सरकार की परेशानी बढ़ाना उन्हें उचित नहीं लगता। ऐसे में, अगर नेताजी आजाद हिन्द लीजन के झण्डे तले जर्मन सेना की कुछ टुकड़ियों को लेकर भारत की सीमा पर प्रवेश कर जाते हैं, तो न केवल नागरिक, बल्कि ब्रिटिश सेना के भारतीय सैनिक भी बगावत पर उतर सकते हैं। भारतीयों की नब्ज को नेताजी बेहतर समझते हैं, न कि हिटलर। मगर दुर्भाग्य!

(भारतीय नेताओं के दवाब में गाँधीजी को अगस्त’ 42 में भारत छोड़ो आन्दोलन का बिगुल फूँकना पड़ता है; मगर इस आन्दोलन को ब्रिटिश सरकार कुचल देती है और ब्रिटिश सेना के भारतीय सैनिकों की राजभक्ति भी बनी रह जाती है।)

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इस बैठक में हिटलर जानना चाहते हैं कि वास्तव में किस प्रकार की राजनीतिक विचारधारा (‘पोलिटिकल कॉन्सेप्ट’) नेताजी के दिमाग में है। इस टिप्पणी पर बुरा मानते हुए नेताजी एडम वॉन ट्रोफ्फ ज़ु सोल्ज (स्पेशल इण्डिया ऑफिस के चीफ) के माध्यम से जवाब देते हैं-

अपने हिज एक्सेलेन्सी को कहिए कि मैंने अपनी सारी जिन्दगी राजनीति में बितायी है और मुझे किसी की भी सलाह की जरुरत नहीं है।

यह हिटलर के चरमोत्कर्ष का काल है- शायद ही किसी ने हिटलर को ऐसा जवाब दिया हो।

खैर, अन्त में दोनों नेताओं के बीच इस बात पर सहमति बनती है कि चूँकि जापानी सेना भारत की ओर- बर्मा तक- बढ़ गयी है, अतः नेताजी को जापान के सहयोग से अब पूरब की ओर से भारत में प्रवेश करना चाहिए।

जर्मनी में नेताजी को इस प्रकार रखा जाता है, जैसे कोई शेरनी अपने शावक को रखती है- कोई उसे छू न सके। आजाद हिन्द रेडियो पर नेताजी के भाषणों से, और भारत की मुक्ति वाहिनी (Liberation Army) के रुप में ‘इण्डियन लीज़न’ सेना के गठन के प्रचार से मित्र राष्ट्र की सेनाओं पर गहरा मनोवैज्ञानिक दवाब पड़ रहा है। जर्मन विदेश विभाग के बहुत-से उच्चाधिकारी नहीं चाहते कि नेताजी जर्मनी छोड़ें, मगर यह वक्त की माँग है।

नेताजी भी हिटलर से निराश होकर अब जर्मनी छोड़कर जापान जाना चाहते हैं।