2.6 बर्लिन से टोक्यो: तैयारियाँ

       

          च तो यह है कि अक्तूबर’ 41 से ही (जर्मनी में तैनात) जापानी अधिकारी नेताजी को जापान ले जाना चाह रहे हैं। बर्लिन स्थित जापानी सैन्य अटैश के कर्नल सातोशि यामामोतो बिन (Satoshi Yamamoto) पहले से ही नेताजी के मित्र बन गये हैं। जापानी राजदूत ले. जनरल ओशिमा हिरोशि (Oshima Hiroshi) भी यदा-कदा नेताजी से मिलते रहते हैं। दरअसल इन्हें पता है कि बहुत जल्द उनका देश बंगाल की खाड़ी तक प्रभुत्व स्थापित करने की योजना बना रहा है; ऐसे में, बर्मा के रास्ते भारत को आजाद कराना नेताजी के लिए ज्यादा उपयुक्त रहेगा।

दिसम्बर’ 41 में जब जापान पूरी तरह से ब्रिटेन-अमेरीका के खिलाफ युद्ध में शामिल हो जाता है, तब नेताजी भी जापान जाना चाहते हैं और ओशिमा से कहते हैं कि वे अपने स्तर पर उपाय करें। मगर जर्मन विदेश विभाग के अधिकारी नहीं चाहते कि नेताजी जर्मनी छोड़ें; अतः वे ओशिमा की बातों पर ध्यान नहीं देते।

तब ओशिमा सीधे हिटलर से मिलकर अपनी बात कहते हैं। हिटलर सहमत हैं, मगर उनका एक प्रश्न है- क्या टोक्यो नेताजी को पूर्ण समर्थन देगा? इसपर ओशिमा टोक्यो से सम्पर्क करते हैं, मगर संतोषजनक उत्तर नहीं मिलता। (पहली बात, जापान के पास पहले से ही एक ‘बोस’ हैं (रासबिहारी बोस), और दूसरी बात, इस लम्बी और खतरनाक यात्रा में अगर नेताजी को कुछ हो गया, तो जापान भारतीयों को क्या मुँह दिखायेगा?)  

समय बीत रहा है। 42 की गर्मियों में स्तालिनग्राद (अब वोल्गोग्राद) में नाज़ी सेना की बढ़त रूक जाने के बाद तय हो जाता है कि अब नाज़ी सेना की मदद से भारत को आजाद नहीं कराया जा सकता; और इसी वर्ष सर्दियों में सिंगापुर में आई.एन.ए. का गठन विफल हो जाता है- युद्धबन्दी भारतीय सैनिक आई.एन. में बने रहने के लिए नेताजी की माँग कर रहे हैं। अब जाकर टोक्यो ओशिमा को सन्देश भेजता है कि नेताजी को जापान लाने की व्यवस्था की जाय।

मगर सवाल यह है कि ‘मित्र राष्ट्र’ की सेनाओं की आँखों में धूल झोंकते हुए इतनी लम्बी यात्रा पूरी कैसे की जाय! हिटलर मध्य-पूर्व तथा भारत के ऊपर से हवाई यात्रा के सख्त खिलाफ हैं; उनका मानना है कि मित्र राष्ट्र वाले नेताजी के विमान को कहीं भी उतरने के लिए बाध्य कर सकते हैं।

पानी वाले जहाज से यात्रा भी सुरक्षित नहीं है। हाँ, सोवियत संघ के ऊपर से (लुफ्ताँसा कम्पनी के एक विमान द्वारा) नेताजी को भेजने के लिए वे तैयार हैं। मगर इसमें जापान को आपत्ति है। सोवियत के साथ उसकी जो सन्धि है, उसकी किसी कड़ी का इससे उल्लंघन होगा।

नेताजी और यामामोतो इस बीच इतावली विमान की व्यवस्था करने की कोशिश करते हैं। ‘अभ्यास’ के तौर पर एक विमान रोम से सिंगापुर तक उड़ान भरता है- कोई अवांछित घटना नहीं घटती। फिर भी, मुसोलिनी इतावली विमान से नेताजी को भेजने की अनुमति नहीं देते। (ईश्वर न करे, अगर नेताजी को विमान यात्रा के दौरान कुछ हो गया, तो सदा के लिए इटली के इतिहास में एक धब्बा नहीं लग जायेगा!)

अन्त में पनडुब्बी यात्रा का विकल्प बचता है। जर्मनी अपनी लम्बी दूरी की एक पनडुब्बी में नेताजी को पूर्व में माडागास्कर के पास एक खास विन्दु तक पहुँचायेगा और उधर से जापान अपनी पनडुब्बी भेजेगा- नेताजी को लिवाने के लिए। कई सन्देशों के आदान-प्रदान के बाद अन्त में ओशिमा, जापानी प्रधानमंत्री जेनरल तोजो की स्वीकृति हासिल कर नेताजी को सूचित करते हैं।

वास्तव में, नेताजी जर्मनी, इटली और जापान, तीनों के लिए मूल्यवान हैं- कोई नहीं चाहता कि इस यात्रा में उनका बाल भी बांका हो।

सब तय होने के बाद एक आखिरी आपत्ति जापानी नौसेनाध्यक्ष द्वारा यह कहकर उठायी जाती है कि जापानी नौसेना के एक प्रावधान के अनुसार युद्ध के दिनों में कोई ‘नागरिक’ (सिविलियन) जापानी पनडुब्बी में सवार नहीं हो सकता। जर्मन राजदूत के मार्फत यह सन्देश पाकर जर्मन विदेश विभाग (स्पेशल इण्डिया ऑफिस) के एडम वॉन ट्रॉफ्फ जवाब में यह टेलीग्राम भेजते हैं-

सुभाष चन्द्र बोस किसी भी नजरिए से सामान्य नागरिक नहीं हैं, वे भारतीय मुक्ति वाहिनी के सेनापति हैं।

(Subhas Chandra Bose is by no means a private person, but Commander-in-Chief of the Indian Liberation Army.”) 

इस प्रकार आखिरी बाधा भी दूर होती है।

नेताजी को अपने पीछे जर्मनी में न केवल अपनी पत्नी और नन्हीं बेटी को छोड़ आना होगा, बल्कि बहुत ही खास ढंग से प्रशिक्षित इण्डियन लीजन के उन साढ़े तीन हजार बहादूर भारतीय सैनिकों को भी छोड़ आना होगा, जो अपनी मातृभूमि को आजाद कराने का सपना दिलों में संजोए बैठे हैं।

इन सैनिकों को यह नहीं बताया जाता कि नेताजी सदा के लिए जापान जा रहे हैं, बल्कि यह बताया जाता है कि नेताजी दो-एक हफ्तों के लिए जर्मनी से बाहर जाने वाले हैं। इसलिए 26 जनवरी को ‘भारतीय स्वतंत्रता दिवस’ तथा 28 जनवरी को ‘लीज़न दिवस’ की पार्टियों में वैसी कोई विदाई नेताजी को नहीं दी जाती।

नेताजी की अनुपस्थिति में फ्री इण्डिया सेण्टर तथा इण्डियन लीजन का प्रभार नाम्बियार सम्भालेंगे। (ए.सी.एन. नाम्बियार जर्मनी में पत्रकार हैं। वे नेताजी के गहरे मित्र बन जाते हैं।)

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7-8 फरवरी 1943 की रात।

जर्मनी के किएल शहर का बन्दरगाह।

जर्मन नौसेना की लम्बी दूरी की पनडुब्बी यू-180 (टाईप-9 डी-1) फ्रिगेट कैप्टन वार्नर मुज़ेनबर्ग (Werner Musenberg) के नेतृत्व में तैयार खड़ी है। जर्मन स्टेट सेक्रेटरी केपलर (Keppler), स्पेशल इण्डिया डीविजन के अलेक्जेण्डर वर्थ (Alexander Werth) और अपने मित्र नाम्बियार के साथ नेताजी किएल पहुँचते हैं।

उनके एडजुटैण्ट आबिद हसन को एक अन्य गाड़ी में बर्लिन से किएल लाया जाता है। पनडुब्बी पर सवार होने तक उन्हें पता ही नहीं होता कि वे नेताजी के साथ जापान जा रहे हैं- सदा के लिए।