3.5 ऑपरेशन “यू-गो”

        

    21 अक्तूबर (1943) को आज़ाद हिन्द सरकार के गठन के बाद इस सरकार का पहला महत्वपूर्ण निर्णय 22-23 अक्तूबर की रात में लिया जाता है, और वह है- ब्रिटेन तथा अमेरीका के खिलाफ युद्ध की घोषणा। काबीना के सदस्यों में से सभी ‘अमेरीका’ का नाम शामिल किये जाने के मामले में एकमत नहीं हैं। इसपर नेताजी थोड़ी अप्रसन्नता और अधीरता जाहिर करते हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि इस सरकार में नेताजी निर्णय ही अन्तिम होगा- मंत्रीपरिषद इतना शक्तिसम्पन्न नहीं है कि नेताजी के निर्णय को बदला जा सके। अतः ब्रिटेन के साथ अमेरीका के भी खिलाफ यह सरकार युद्ध की घोषणा करती है।

अगले दिन विशाल जनसमूह के सामने युद्ध की इस घोषणा को दुहराते हुए नेताजी बोलते हैं:

अँग्रेज इस बात को अच्छी तरह से जानते हैं कि मैं जब कुछ कहता हूँ तो उसका अर्थ होता है, और जिसका अर्थ होता है, वही मैं कहता हूँ; इसलिए जब मैं कहता हूँ- युद्ध, तो इसका मतलब है युद्ध- अँग्रेजों के खिलाफ युद्ध- युद्ध जो सिर्फ भारत की आजादी के साथ ही थमेगा... 

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यहाँ थोड़ी देर के लिए घटनाक्रमों का सिंहावलोकन करते हैं।

15 फरवरी 42 को सिंगापुर को फतह करने के बाद जापानी सेना उत्तर की ओर आगे बढ़कर 7 मार्च को रंगून (यंगून) पर कब्जा करती है। मई’ 42 तक ब्रिटिश सेना को चिन्दविन (Chindwin) नदी के पार धकेल दिया जाता है और जून’ 42 तक बर्मा को पूरी तरह ब्रिटिश शासन से मुक्त करा लिया जाता है। जापानी सेना चिन्दविन नदी के इस पार आकर ठहर जाती है।

ले. कर्नल हायशी (Hayashi) चिन्दविन नदी पार करके इम्फाल तक ब्रिटिश सेना का पीछा करने और इम्फाल पर कब्जा करने का प्रस्ताव भेजते हैं, ताकि ब्रिटिश या मित्र राष्ट्र की सेना शक्ति बटोर कर और इम्फाल को अपना आधार बनाकर निकट भविष्य में प्रति-आक्रमण न कर सके।

मगर 10 और 16 मई को इम्फाल पर हवाई बमबारी के बाद जापान और कार्रवाई नहीं करता। दीर्घ छह महीनों तक विचार-विमर्श करने के बाद दिसम्बर’ 42 में टोक्यो इस प्रस्ताव को पूरी तरह से खारिज कर देता है। खारिज करने के दो कारण बताये जाते हैं-

1. बर्मा के इन भयानक जंगलों से होकर एक बड़ी सेना का गुजरना लगभग असम्भव है; और

2. चिन्दविन नदी पार करने का मतलब है- भारत पर आक्रमण; और ऐसा करने से भारतीय जन-मानस में जापानियों के प्रति दुर्भावना पैदा हो जायेगी।

अब ध्यान दीजिये- अक्तूबर’ 41 से ही जर्मनी में जापान के राजदूत ले. जेनरल ओशिमा हिरोशी और जापानी सैन्य अटैश के कर्नल यामामोतो नेताजी को जापान लाना चाह्ते हैं। दिसम्बर’41 में जापान जब पूरी तरह ब्रिटेन-अमेरीका के खिलाफ युद्ध में कूद पड़ता है, तब नेताजी भी एशिया आने की इच्छा जताते हैं। जापानी राजदूत काफी कोशिश करते हैं, मगर बात नहीं बनती। जर्मनी में विदेश विभाग के उच्चाधिकारी और जापान में जापानी सेना के फील्डमार्शल इस मामले में रोड़ा अटकाते हैं।

मई’ 42 में सोवियत संघ में नाज़ी सेना की बढ़त रुक जाती है और इण्डियन लीजन के झण्डे तले उसका भारत को आज़ाद कराने की आशा समाप्त हो जाती है। अब नेताजी को जापान आना ही है। मगर आते-आते एक साल बीत जाता है। एशिया में आकर फौज़ का पुनर्गठन तथा अन्तरिम सरकार का गठन कर, जब तक नेताजी सैन्य अभियान शुरु करते हैं, तब तक लगभग एक साल और बीत जाता है।

यानि ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ जो युद्ध नेताजी 1944 में शुरु करते हैं, उसे दो साल पहले 1942 में शुरु होना था। ’42 के अन्त तक धुरी राष्ट्र की सेनाएँ चारों ओर जीत भी रही थीं। मगर फरवरी’ 43 से धुरी राष्ट्र की सेनाएँ महत्वपूर्ण ठिकानों पर हारने लगी हैं। मित्र राष्ट्र की सेनाओं की ताकत लगातार बढ़ रही है।

फिर भी, नेताजी युद्ध करने का फैसला लेते हैं, क्योंकि उनका मानना है कि- भारत की आज़ादी सम्पूर्ण रुप से धुरी राष्ट्र की जीत पर निर्भर नहीं है। जर्मनी में अपने जर्मन मित्र एडमिरल कैनरिस (प्रसिद्ध जर्मन गुप्तचर  संस्था  ‘Abwehr’ के जनक) से उन्होंने कहा भी था,

इस बार जीत कर भी ब्रिटेन भारत को हार जायेगा। (“This time a victorious Britain will lose India.”)

वैसे, अगर 41-42 में किसी प्रकार नेताजी को जापान ले आया जाता, तो जापानी सेना नेताजी को सामने रखकर भारत में प्रवेश कर सकती थी (नेताजी के साथ नाम के लिए ही सही, युद्धबन्दी भारतीय सैनिकों की एक मुक्तिवाहिनी होती), इससे भारतीयों के मन में जापानियों के प्रति दुर्भावना पैदा नहीं होती, भारत अंग्रेजों के चंगुल से मुक्त हो जाता और सबसे बड़ी बात- देश को नेताजी के रुप में पहला शासक मिलता। फिर तो आज भारत का इतिहास कुछ और ही होता। 

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यह सही है कि जापानी शासन, प्रशासन और सेना के ज्यादातर उच्चाधिकारी नेताजी के व्यक्तित्व से सम्मोहित हैं (कुछ तो उनके भक्त बन गये हैं); मगर यह भी सही है कि जापानी सैन्य-प्रशासन में नेताजी का एक विरोधी खेमा भी मौजूद है।

यह खेमा शक्तिशाली है, क्योंकि इसके अगुआ हैं- फील्डमार्शल काउण्ट तेराउची (Terauchi)। तेराउची का शुरु से ही मानना है कि जापान बेकार में अपना धन-बल भारत को आजाद कराने में खर्च कर रहा है।

नवम्बर ’43  में जब युद्ध की योजना बन रही है, तेराउची प्रस्ताव रखते हैं कि इस सैन्य अभियान में बर्मा एवं स्याम स्थित जापानी सेना के तीन डीविजन भाग लें और आज़ाद हिन्द फौज़ सिंगापुर में ही रुके।

जबकि नेताजी का मानना है कि भारत की आजादी के इस सैन्य अभियान में भारत की धरती पर गिरने वाला रक्त की पहली बूँद किसी भारतीय का ही होना चाहिए (न कि किसी जापानी का)।

तेराउची अपने मत में तीन तर्क पेश करते हैं-

1. भारतीय सैनिकों का मनोबल नीचा (Demoralised) है, क्योंकि वे युद्धबन्दी हैं;

2. वे जापानियों के समान मेहनती (Painstaking) नहीं हैं, और

3. वे सिर्फ पैसों के युद्ध करनेवाले (Mercenary)– भाड़े के सिपाही हैं।

खैर, अन्त में यह तय होता है कि पहले आज़ाद हिन्द फौज़ का एक ही ब्रिगेड अभियान में भाग लेगा और अगर उसने खुद को युद्धभूमि में साबित किया, तो बाकी भारतीय सैनिकों को भी सीमा पर भेजा जायेगा।

नेताजी गाँधी, नेहरू और आज़ाद ब्रिगेड में से बेहतरीन पंक्तियों को चुनकर नया ब्रिगेड बनाते हैं- सुभाष ब्रिगेड! यह ब्रिगेड अपने भारतीय अधिकारिय़ों के आदेश पर चलेगा (हालाँकि कुल-मिलाकर नियंत्रण जापान का ही रहेगा)। अपने युद्ध का खर्च भी आज़ाद हिन्द सरकार वहन करेगी, न कि जापान सरकार।

नेताजी खुले रुप से अपने सैनिकों को निर्देश देते हैं- कि अगर उनका कोई जापानी साथी सिपाही किसी भारतीय नागरिक को प्रताड़ित करता है, या ऐसा कोई कदम उठाता है, जो भारत की आजादी के खिलाफ जाये, तो उसे वहीं उसी वक्त गोली मार दी जाय!

नेताजी जापान सरकार को सूचित करते हैं कि वे भावी युद्ध के मद्दे-नजर आज़ाद हिन्द सरकार का मुख्यालय सिंगापुर से रंगून स्थानान्तरित करने जा रहे हैं।

स्थानान्तरण सम्पन्न होते ही 7 जनवरी 1944 को टोक्यो ऑपरेशन U को हरी झण्डी प्रदान कर देता है।

(जापानियों ने इस सैन्य अभियान का नाम यू चुना है। इतना नीरस नाम शायद ही कभी किसी सैन्य अभियान का रहा हो। कहीं-कहीं इसे ऑपरेशन यू-गो कहा जाता है- यह कुछ सार्थक है। लगता है, अंग्रेजों से कहा जा रह हो- भारत छोड़ो।)

बर्मा एरिया आर्मी के कमान अधिकारी ले. जेनरल मासाकजी कावाबे (Masakazy Kawabe) अपने मुख्यालय में उसी शाम (7 जनवरी) को नेताजी तथा उनके स्टाफ अधिकारियों के स्वागत में पार्टी देते हैं। पार्टी में बोलते हुए इन शब्दों के साथ नेताजी अपनी बात समाप्त करते हैं-

इस वक्त सर्वशक्तिमान से मेरी सिर्फ यही प्रार्थना है कि हमें जल्द-से-जल्द अपने खून से आजादी की कीमत चुकाने का अवसर मिले... ।

मगर देरी का सिलसिला यहाँ भी जारी रहता है- जापान की 15वीं वाहिनी का एक बड़ा हिस्सा स्याम (थाईलैण्ड) में सड़क निर्माण के काम में जुटा है। बर्मा पहुँचने में उसे समय लग जाता है और जो इम्फाल अभियान जनवरी में ही प्रारम्भ हो जाना चाहिए था, उसकी तारीख को मार्च तक आगे खिसकाना पड़ता है।

(यह देरी बाद में घातक साबित होती है।)

इस बीच नेताजी अपना सारा समय सुभाष ब्रिगेड के साथ बिताते हैं। उन्हें अभ्यास करते और परेड करते देखते हैं, उनसे बाते करते हैं। अपने अन्दर की देशभक्ती को मानो वे उन सैनिकों में उड़ेल देना चाहते हों। यही वे सैनिक हैं, युद्धभूमि में जिनकी बहादूरी भारत माँ के सम्मान की रक्षा करेगी।

15वीं वाहिनी के कमाण्डर ले. जेनरल रेन्या मुतागुची (Renya Mutaguchi) युद्ध की योजना बनाते हैं- पहले अराकान क्षेत्र में ब्रिटिश सेना पर धावा बोलना है। इससे ब्रिटिश सेना अपने आरक्षित बलों को चटगाँव में ले आयेगी, जो कि पूर्वी बंगाल का प्रवेश द्वार है। तब बिना भनक दिये मार्च में कोहिमा तथा इम्फाल पर कब्जा कर लेना है। ब्रिटिश सेना वहाँ आरक्षित बलों को नहीं भेज पायेगी। चूँकि मई में बरसात की शुरुआत हो जायेगी अतः इम्फाल अभियान को एक महीने में ही पूरा करना है और उसके बाद ब्रिटिश सेना के गतिशील होने से पहले ही आसाम से बंगाल तक के इलाकों को आधिपत्य में ले लेना है।

नेताजी के गुप्तचर मणिपुर पहुँच कर वहाँ के राजनीतिक दल ‘निखिल मणिपुरी महासभा’ को भरोसे में लेती है। (मणिपुर में काँग्रेस का अस्तित्व नहीं है, न ही गाँधीजी को मणिपुर में प्रवेश की अनुमति है!)

कुछ गुप्तचरों को पनडुब्बी से भारत की मुख्यभूमि पर भी उतारा जाता है- नागरिकों को बगावत के लिए तैयार रहने के सन्देश के साथ। 

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3 फरवरी 1944।

अराकान अभियान के लिए अपने सैनिकों को रवाना करते हुए नेताजी कहते हैं-

       खून खून को पुकार रहा है। उठो! हमारे पास खोने के लिए वक्त नहीं है। अपने हथियार उठाओ। हमारे सामने यह सड़क है। हमसे पहले गुजरने वालों ने इसे बनाया है। हम इस रास्ते पर आगे बढ़ेंगे। दुश्मनों की रक्षापंक्तियों को भेदते हुए हम अपना रास्ता बनायेंगे। ... या फिर, अगर ईश्वर ने चाहा, तो हम एक शहीद की मौत मरेंगे। मरते वक्त भी हम उस रास्ते को चूमेंगे, जो हमारी सेना को दिल्ली तक पहुँचायेगी। दिल्ली तक जाने वाली यह सड़क आज़ादी की सड़क है। ...चलो दिल्ली!