2.1 काबुल से बर्लिन: वाया मास्को

 

 

खिरकार 18 मार्च 1941 को इतावली सज्जन सिन्योर (श्री) ‘काउण्ट ओरलाण्डो मज्जोत्ता’  के पासपोर्ट पर नेताजी काबुल से रवाना होते हैं। डेढ़ महीने की व्यग्रता का दौर समाप्त होता है।

उनके साथ हैं डा. वॉयलगर (Dr. Voelger) तथा एक और जर्मन नागरिक।

तार्मीज (उज्बेकिस्तान) से मास्को के लिए ट्रेन खुलती है। 20 मार्च को नेताजी इस ट्रेन में बैठते हैं। रास्ते में जाँच-पड़ताल से बचाने के लिए उन्हें कागजात में वायरलेस ऑपरेटर बताया गया है। वैसे, अफगान राजकुमार आगा खान के समर्थक काबुल से उज्बेकिस्तान की सीमा तक नेताजी को सुरक्षा प्रदान करते हैं, तथा सीमा पार करने के बाद सोवियत गुप्तचर पुलिस (एन.के.वी.डी.) नेताजी को सुरक्षित मास्को तक पहुँचाने की जिम्मेवारी लेती है।

मास्को पहुँचकर नेताजी सोच रहे हैं कि स्तालिन भारत में अपने परम्परागत शत्रु ब्रिटेन का शासन समाप्त करने में जरूर मदद करेंगे, मगर स्तालिन की चिन्ता अभी कुछ और है- उन्हें डर है कि हिटलर की नाज़ी सेना ‘अनाक्रमण सन्धि’ का उल्लंघन करते हुए किसी भी वक्त सोवियत संघ पर आक्रमण कर सकती है।

(23 अगस्त 39 को- विश्वयुद्ध से ठीक पहले यह अनाक्रमण सन्धि की गयी थी- ताकि जर्मनी पश्चिमी यूरोप पर और सोवियत संघ पूर्वी यूरोप पर राज कर सके। इसके तहत सोवियत संघ अब तक इस्तोनिया, लातविया, लिथुआनिया, फिनलैण्ड, बाल्कन के कुछ क्षेत्र और आधे पोलैण्ड पर कब्जा कर चुका है; जबकि जर्मनी ने बोहेमिया-मोराविया, स्लोवाकिया, आधे पोलैण्ड, डेनमार्क, नॉर्वे, नीदरलैण्ड, बेल्जियम, लक्ज़मबर्ग और फ्राँस को कब्जा रखा है।)

भारत की आजादी के लिए हिटलर से सैन्य मदद लेने की सलाह के साथ शीघ्र ही  नेताजी को जर्मन दूतावास भेज दिया जाता है।

मास्को में जर्मनी के राजदूत काउण्ट वॉन डेर शुलेनबर्ग (Count von der Schulenburg) नेताजी का स्वागत गर्मजोशी से करते हैं। भारत जैसे विशाल देश के महान नेता (जो दो बार भारत की राष्ट्रीय पार्टी के अध्यक्ष रह चुके हों) को अपने पक्ष में रखने के लिए हिटलर और मुसोलिनी तैयार हैं। मगर नेताजी ‘नाज़ीवाद’ (नात्सीवाद) और ‘फासीवाद’ को पसन्द नहीं करते। इनके प्रति अपनी नापसन्द वे लिखकर जाहिर भी कर चुके हैं-

पहली बार जब 1933 में मैं जर्मनी आया था, मुझे यह आशा थी कि अपने आत्म-सम्मान तथा राष्ट्रीय शक्ति के प्रति सजग यह नया जर्मन राष्ट्र इन्हीं दशाओं में संघर्षरत अन्य देशों के प्रति स्वाभाविक रुप से गहरी सहानुभूति अनुभव करेगा। मगर मुझे अफसोस है कि मैं इस दोषारोपण के साथ आज भारत लौट रहा हूँ कि यह नयी जर्मन राष्ट्रीयता न केवल संकीर्ण और स्वार्थी है, बल्कि उद्दण्ड भी है।

(–नेताजी, 25 मार्च, 1936 को विदेशी मामलों के जर्मन अकादमी के डा. थेयरफेल्डर को लिखे पत्र में।)

मगर अन्त में नेताजी फैसला लेते हैं कि देश को आजाद कराने के लिए अगर शैतान से भी हाथ मिलाना पड़े, तो वे मिलायेंगे! और फिर, शुलेनबर्ग द्वारा इन्तजाम किये गये एक विशेष कूरियर हवाई जहाज से नेताजी रोम होते हुए 28 मार्च 1941 को बर्लिन पहुँचते हैं।

करीब छह महीनों तक नेताजी के बर्लिन में होने की खबर को गुप्त ही रखा जाता है।

उधर एस.ओ.ई. (Special Operations Executives) वाले अपने मुख्यालय से पूछते हैं- नेताजी शायद काबुल से यूरोप पहुँच गये हैं, अब क्या आदेश है?

जवाब आता है- पिछला आदेश कायम है। यूरोप में भी सुभाष चन्द्र बोस जहाँ कहीं दिखे, उनकी हत्या कर दी जाय।