3.7 एक त्रासद वापसी


    आजाद हिन्द फौज के कर्नल (डॉ.) आर.एम. कासिवाल के शब्दों में इम्फाल-कोहिमा अभियान का आकलन:

हमारी सेना ने सहयोगी सेना के साथ मिलकर मणिपुर सेक्टर में ब्रिटिश ताकतों को काफी पीछे तक धकेल दिया था। हमारे कुछ सैनिक कोहिमा पहुँच गये और कोहिमा शहर पर कब्जा कर लिया। इम्फाल के गढ़ को घेर लिया गया था और सभी संचार एवं यातायात व्यवस्था को काट दिया गया था, सिवाय वायु मार्ग के। आधे भोजन पर टिके, थके और पस्त होने के बावजूद हमारे सैनिकों का आत्मबल ऊँचा था और वे कष्ट की किसी भी मात्रा को सहने के लिए तैयार थे। तब अचानक जापान ने हवाई सुरक्षा वापस ले ली। इसे उसने अपने घर की ओर मोड़ दिया। फिर भी हमारे सैनिक बहादूरी और दृढ़ता के साथ लड़ते रहे और उन्होंने कब्जा बनाये रखा। सारे एशिया में ‘इम्फाल के पतन’ की तैयारियाँ कर ली गयी थीं। और तब आकाश से उतरी आफत- वर्षा। भारी वर्षा, मूसलाधार वर्षा समय से महीने भर पहले शुरु हो गयी। हमारी आपूर्ती एवं संचार व्यवस्था ध्वस्त हो गयी। हमारे सैनिकों को राशन मिलना बन्द हो गया, फिर भी वे बहादूरी से लड़े और युद्धभूमि में शहीद हुए। बन्दूकों का चलना बन्द होने लगा था, मशीनगनों की तड़-तड़ रुकने लगी थी, यहाँ तक कि रायफल भी अशक्त पड़ने लगे थे; फिर भी, वे संगीनों से लड़ना चाहते थे।...

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लोत्पाचिंग (रेडहिल) पर ब्रिटिश बमबारी में जीवित बचे जापानी सैनिकों में से एक एम. मिमूरा इन शब्दों में मई’ 44 के उन आखिरी दिनों को याद करते हैं (पचासी वर्ष की आयु में मिमूरा 1994 में रेडहिल पर ‘भारत-जापान शान्ति स्मारक’ की स्थापना के अवसर पर उपस्थित हुए थे):

पिछले दिनों में तीनों दिशाओं से आगे बढ़ती भारतीय-जापानी सेना को रोक पाने में असमर्थ मित्रराष्ट्र की सेनाएँ पीछे हट रही थीं। अचानक पता नहीं क्या हुआ, तामू की ओर से हमारी बढ़त पैलेल में हवाई बमबारी और थलसैनिकों द्वारा रोक दी गयी। इसी प्रकार, उखरुल के रास्ते किये गये कोहिमा आक्रमण को भी विफल कर दिया गया, क्योंकि मित्रराष्ट्र वालों को युद्ध के साजो-समान तथा सैनिकों की व्यवस्था करने के लिए पर्याप्त समय मिल गया था। जहाँ तक रेडहिल की बात है, यहाँ भीषण मार-काट का अनुमान कोई भी युद्ध-विशारद लगा सकता था। मित्रराष्ट्रों की इस संगठित और पुनर्गठित सेना के विरुद्ध जापानी सिर्फ दृढ़निश्चय के बल पर लड़ रहे थे; और इसलिए आसानी से हरा दिये गये।    

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स्वयं नेताजी के शब्दों में इस अभियान का आकलन:

मौनसून हमारे लिए प्रतिकूल रहा। हमारे रास्ते डूब गये। नदियों के रास्ते यातायात बहाव के विपरीत हो गया। इसके मुकाबले शत्रुपक्ष के पास बहुत अच्छी सड़कें थीं। हमारे पास यही एक मौका था कि हम बरसात शुरु होने से पहले इम्फाल पर कब्जा कर लें। हम इसमें सफल हो भी जाते, अगर हमारे पास और भी हवाई-सुरक्षा होती, और अगर इम्फाल में तैनात शत्रुपक्ष के सैनिकों को आखिरी व्यक्ति के जीवित रहने तक लड़ते रहने के विशेष आदेश न दिये गये होते। अगर हमने जनवरी में शुरुआत की होती तो हम सफल हो जाते। टिड्डिम में हमने बढ़त बनायी। पैलेल और कोहिमा में भी हम आगे बढ़े। जब वर्षा आयी, तो हमें इम्फाल पर अपने मुख्य आक्रमण को टालना पड़ा। शत्रुपक्ष मेकेनाइज्ड डिवीजन भेजने में सफल रहा और इस प्रकार, उसने कोहिमा-इम्फाल रोड को फिर से हथिया लिया। अब हमारे सामने दो रास्ते बचे थे- या तो हम विष्णुपुर-पैलेल मार्ग पर डटे रहकर दुश्मन को आगे बढ़ने से रोकें; या फिर, पीछे हटकर ज्यादा सुविधाजनक मोर्चा बाँधें। याद किया जा सकता है कि टिड्डिम रोड होते हुए राज्य की राजधानी इम्फाल से 8 से 9 किलोमीटर दूर बाहरी वलय को कब्जाने के क्रम में जब जापानी और आजाद हिन्द फौज के सैनिक लोत्पाचिंग के सँकरे स्थान (बोटलनेक) के पस एकत्र हो रहे थे, तब मित्रराष्ट्रों की वायुसेना द्वारा लोत्पाचिंग मोर्चे पर अन्धाधुन्ध और भारी बमबारी की गयी, जिसके परिणामस्वरुप सौ से अधिक जापानी और आजाद हिन्द फौज के सैनिकों के मारे जाने की आशंका है।

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इम्फाल-कोहिमा अभियान (ऑपरेशन यू) की असफलता के कई कारण गिनाये जाते हैं, जैसे- दो कमानों का होना (आजाद हिन्द फौज के सैनिक अपने भारतीय अधिकारियों से आदेश लेते थे, न कि जापानी), हवाई सुरक्षा की कमी, ज्यादा मोर्चे खोलना, समय का गलत चुनाव (इसके दो सन्दर्भ हैं- 1. यह अभियान 1942 में बर्मा विजय के तुरन्त बाद किया जाना था, जब मित्रराष्ट्र वाले दुनिया भर में हार रहे थे; 2. 7 जनवरी 1944 को टोक्यो द्वारा ऑपरेशन यू को हरी झण्डी देने के बाद जनवरी में ही अभियान शुरु कर देना था, तब मौनसून के पर्याप्त पहले इम्फाल पर अधिकार किया जा सकता था।), इत्यादि।

मगर एक कारण का जिक्र नहीं होता, वह है- आजाद हिन्द फौज के कुछ अधिकारियों का ब्रिटिश सेना से मिल जाना। गाँधी ब्रिगेड के कमान अधिकारी बी.जे.एस. ग्रेवाल और मेजर प्रभुदयाल इसके उदाहरण हैं। इन अधिकारियों ने नक्शे पर आजाद हिन्द फौज के सैनिकों की संख्या और स्थिति को दर्शाते हुए फौज की सारी जानकारी ब्रिटिश सेना को सौंप दी थी और खुद भी पाला बदल लिया था।

नेताजी के विश्वासपात्र रहे एस.एन. खान ने पाला तो नहीं बदला था, मगर अभियान के दौरान वे ब्रिटिश सेना में कार्यरत अपने भाई के सम्पर्क में आ गये थे और आजाद हिन्द फौज के साथ-साथ जापानी सेना के भी कूट शब्द (कोड) तथा योजनाओं (वार प्लान) की जानकारी उन्होंने अपने भाई के माध्यम से ब्रिटिश सेना को सौंप दी थी। पता चलने पर नेताजी ने एस.एन. खान को सीमा से बुलाकर रंगून मुख्यालय भेज दिया था और साथ ही, 'कोर्ट मर्शल' का भी आदेश दे दिया था। (हालाँकि रंगून मुख्यालय पर रह-रह कर हो रही ब्रिटिश हवाई बमबारी के कारण एस.एन. खान का कोर्ट मार्शल नहीं किया जा सका और कुछ समय बाद तो खैर रंगून का पतन ही हो गया।) इस तरह की गुप्त जानकारियाँ शत्रुपक्ष के पास पहुँचना किसी भी युद्धरत सेना के लिए घातक होता है।

 (एस.एन. खान के बारे में यहाँ यह भी बता देना प्रासंगिक होगा कि फरवरी’42 में उन्होंने इण्डियन नेशनल आर्मी के गठन का ही विरोध किया था और जब आई.एन.ए. बनने लगा, तब करीब बीस अधिकारियों का एक ग्रुप बनाकर कैप्टन मोहन सिंह का विरोध किया था। खान को डर था कि एक सिक्ख के अधीन मुस्लिमों के हित सुरक्षित नहीं रह सकते।)

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दाहिनी ओर चिन पहाड़ियों तथा बाँई ओर चिन्दविन नदी को रखते हुए कावाब घाटी होकर जापानी/नेताजी के सैनिक वापस लौटते हैं।

यह वापसी द्वितीय विश्वयुद्ध की सबसे बड़ी त्रासदियों में से एक है। आगे-आगे डिवीजन कमाण्डर तथा गार्ड जीप तथा घोड़ों पर चलते हैं। अफसर, आपूर्ति, संचार और मेडिकल यूनिटें इनके पीछे हैं। इनके पीछे हैं- वर्षा में भींगे, बुखार से काँपते, कुपोषण से लड़खड़ाते हजारों सैनिक।

जैसे-जैसे ये बढ़ते हैं, रास्ते के किनारे लाशों से पटते जाते हैं। लाशों को दफनाने की भी क्षमता सैनिकों में नहीं है- लाशों को खुला ही छोड़ दिया जाता है।

ब्रिटिश बमवर्षक विमानों की हवाई बमबारी इस दौरान जारी रहती है।

चिन्दविन नदी पार कर नदी के किनारे-किनारे मोर्चा बाँधकर ये सैनिक प्रायः दो महीनों तक दुश्मन से लोहा लेते हैं।

इसके बाद (कावाबे को हटाकर) टोक्यो ह्योतारो किमुरा (Hyotaro Kimura) को बर्मा एरिया आर्मी का कमाण्डर नियुक्त करता है। किमुरा अपनी सेना की कमजोरियों को देखते हुए चिन्दविन नदी के किनारे लड़ने से इन्कार कर देते हैं और अपनी सेना को इरावडी नदी के पार खींच लेते हैं। नेताजी भी आजाद हिन्द फौज को पुनर्गठित करते हैं। दोनों सेनाएँ मिलकर इरावडी के पार मोर्चा बाँधती है। मगर अब यह युद्ध इनके लिए एक ‘सुरक्षात्मक’ युद्ध है।

ब्रिटिश सेना के लिए मुश्किल पैदा हो जाती है- उन्हें अपना संचार एवं आपूर्ती मार्ग लम्बा करना होगा। नवम्बर में वहाँ भी कमान में फेरबदल करते हुए ब्रिटिश सेना को ‘एलायड लैण्ड फोर्सेज साउथ ईस्ट एशिया’ के अधीन लाया जाता है। चूँकि संयुक्त सेनाओं (मित्रराष्ट्र की सेनाओं को संयुक्त सेनाएँ- एलायड फोर्सेज- भी कहा जाता है) की आपूर्ती व्यवस्था बेहतर है, इसलिए योजना बदलकर वे बर्मा में धीरे-धीरे आगे बढ़ते हैं।

बर्मा पर फिर से अधिकार करने के इस अभियान को वे ऑपरेशन ड्रैक्युला का कूट नाम देते हैं।

फरवरी’45 में ‘लीडो रोड’ बनकर तैयार हो जाता है, जिससे होकर चीनी गुरिल्ले बर्मा में प्रवेश कर जाते हैं

मार्च में बर्मा नेशनल आर्मी बा-माव सरकार का साथ छोड़कर आंग-सान के नेतृत्व में पाला बदल कर संयुक्त सेना से मिल जाती है। एक ओर से चीनी गुरिल्ले तथा दूसरी तरफ से ये बर्मी सैनिक जापानी/नेताजी के सैनिकों पर छापामारी करने लगे हैं।   

आजाद हिन्द सैनिक न्यांग्यु और पानांग में एक खूनी लड़ाई लड़कर मेसरी की 7वीं वाहिनी को इरावडी पार करने से रोकते है। कई दूसरे स्थानों से संयुक्त सैनिक इरावडी पार कर जाते हैं।

1 मार्च को चार दिनों की भीषण लड़ाई के बाद वे (संयुक्त सैनिक) मेकटिला पर अधिकार जमा लेते हैं। जापानी दुबारा मेकटिला को हासिल करने की कोशिश करते हैं। तब उन्हें कॉवन की 17वीं वाहिनी के आक्रमण से बचाने के लिए आजाद हिन्द सैनिक माउण्ट पोपा में फिर एक खूनी युद्ध करते हैं। मगर मेकटिला को दुबारा नहीं जीता जा सका।

इन लड़ाईयों के दौरान नेताजी बेखौफ युद्धभूमि में विचरण करते हैं। आज यह कहा जा सकता है कि ब्रिटिश सेना के पास ऐसा कोई बम नहीं था, जो नेताजी को मार सके!

20 मार्च को मण्डालय का भी पतन हो जाता है। अब रंगून की बारी है।

स्टिलवेल को डर है कि कहीं जापानियों ने आखिरी व्यक्ति के जीवित रहने तक रंगून को बचाने की कोशिश की, तो तबतक मौनसून आ जायेगा और उनकी (स्टिलवेल की) संचार एवं आपूर्ती व्यवस्था लड़खड़ा जायेगी। यानि पिछले साल जो स्थिति जापानियों की थी, इस साल वही स्थिति ब्रिटिश की है।  

मगर स्टिलवेल को डरने की जरुरत नहीं है- नियति उनका साथ देगी- ब्रिटिश  सेना जब रंगून में प्रवेश कर जायेगी, तब कुछ घण्टों के बाद मौनसून की मूसलाधार बारिश शुरु होगी! महाभारत के कर्ण की तरह नेताजी को भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का त्रासद नायक बनाने का निर्णय नियति ने ले लिया है।

किमुरा 22 अप्रैल 1945 को अपने सैनिकों को रंगून खाली करने का आदेश देते हैं। हालाँकि 25 अप्रैल को उनकी सेना की एक टुकड़ी रंगून से 64 किलोमीटर दूर पेगु में संयुक्त सेना से टकराती है। इसके अलावे सैनिकों, नौसैनिकों तथा जापानी नागरिकों को लेकर एक मिश्रित बल (105 इण्डिपेण्डेण्ट मिक्स्ड ब्रिगेड) उन्होंने रंगून के बाहर तैनात कर रखा है, जिनका काम है- 30 अप्रैल तक शत्रुपक्ष को रंगून के बाहर रोके रखना, ताकि नगर खाली करने का काम सम्पन्न हो सके।

दो साल पहले जब जापानी सैनिक रंगून की ओर बढ़ रहे थे, तब ब्रिटिश सैनिक नगर खाली करके भाग गये थे और नगर में लूट-पाट मच गयी थी। वही घटना फिर दुहरायी जानेवाली है- इस बार ब्रिटिश रंगून की ओर बढ़ रहे हैं और जापानी नगर खाली कर रहे हैं।

नेताजी एक आदर्श सेनापति हैं। वे मेजर जेनरल ए.डी. लोकनाथन को 6,000 आजाद हिन्द सैनिकों के साथ कानून-व्यवस्था बनाये रखने के लिए रंगून में ही रुकने का निर्देश देते हैं- जब तक कि बिटिश सैनिक आकर व्यवस्था न सम्भाल लें।

जापानी सेना हालाँकि अकेले नेताजी को युद्धभूमि से निकालने के लिए तैयार है, मगर नेताजी अपने ‘आजाद हिन्द’ और ‘झाँसी की रानी’ सैनिकों के साथ पैदल चलना पसन्द करते हैं। उनके साथ बर्मा के अपदस्थ राष्ट्रपति डॉ. बा-माव तथा उनकी सरकार के कुछ सहयोगी भी हैं।

24 अप्रैल को शुरु होती है रंगून से स्याम (तब थाईलैण्ड का नाम स्याम था) होते हुए सिंगापुर के लिए कूच। हवाई बमबारी, चीनी-बर्मी गुरिल्लों की छापामारी जारी रहती है; खाने की कौन कहे, पीने को पानी तक की कमी है। मगर किसी को कोई गम नहीं है। यही वादा तो नेताजी ने अपने सैनिकों से किया था! याद कीजिये 5 जुलाई 1943 का वह भाषण: ‘इस वक्त मैं आपको भूख, प्यास, कष्ट, जबरन कूच और मौत के सिवा और कुछ नहीं दे सकता... ।’

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नेताजी एक महान नेता, एक महान सेनापति हैं- यह दर्शाने के कर्नल सी.एस. ढिल्लों के दो संस्मरण यहाँ काफी होंगे:

एक: कर्नल ढिल्लों युद्ध के दौरान नेताजी को भेजे गये अपनी एक रपट में उस स्थान का जिक्र करते हैं, जहाँ उन्हें दुश्मन के हमले का अन्देशा होता है।

नेताजी 500 मील दूर हैं। वे अपने हाथ से एक नक्शा बनाकर ढिल्लों को जवाब भेजते हैं। नक्शे में एक दूसरे स्थान पर नजर रखने का निर्देश नेताजी देते हैं- कि यहाँ दुश्मन हमला कर सकता है।

(आजाद हिन्द फौज वालों के लिए 'टेलीग्राम' 'विलासिता' की बात है; सन्देश 'रनर' के माध्यम से भेजे जाते हैं।)

जब ढिल्लों को नेताजी का जवाब मिलता है, तब वे बिलकुल उसी स्थान पर दुश्मन का मुकाबला कर रहे होते हैं, जिसका जिक्र नेताजी ने अपने नक्शे में किया होता है!

दो: एक बार रंगून में एक समारोह में कर्नल शौकत मलिक बोल उठते हैं, "नेताजी, नेताजी, नेताजी, माई फुट! मैंने (अपनी ओर ईशारा करते हुए) मणिपुर राज्य के मोयरांग में तिरंगा लहराया है!"

नेताजी उनकी ओर मुस्कुरा कर देखते हैं और बर्मी राष्ट्रपति बा-माव तथा अन्य अतिथियों से फिर बातचीत करने लगते हैं- मानों कुछ हुआ ही न हो।

असिस्टेण्ट चीफ ऑव जेनरल स्टाफ कर्नल हबिबुर्रहमान धीरे से मोयरांग के नायक को स्टाफ कार में बैठाकर उन्हें घर तक और फिर बिस्तर तक छोड़ आते हैं।

अगली सुबह रात की बात याद आते ही कर्नल मलिक नेताजी भवन पहुँच जाते हैं। इतनी सुबह भी नेताजी अपने डेस्क पर मौजूद हैं। ए.डी.सी. कैप्टन शमशेर सिंह से मलिक अनुमति माँगते हैं- नेताजी से मिलने के लिए। मलिक को अन्दर बुलाया जाता है।

सलामी के बाद अपना रिवाल्वर नेताजी के टेबल पर रखकर मलिक कहते हैं- रात मैंने जो किया, उसके बाद मुझे एक दिन भी जीने का हक नहीं है। मगर मैं आत्महत्या कर दोजख में जाना भी नहीं चाहता। मेरा अनुरोध है कि आप मुझे गोली मार दें ताकि मुझे सजा भी मिल जाये और आपके पवित्र हाथों से मरने के कारण मुझे जन्नत भी नसीब हो जाये। 

प्यार से मलिक की पीठ थपथपाकर नेताजी कहते हैं- शौकत, तुम लम्बे समय से दवाब और तनाव में हो। तुम्हें आराम और छुट्टियों की जरूरत है।

इसके बाद नेताजी कर्नल मलिक को पन्द्रह दिनों की छुट्टी तथा जेब भर के करेन्सी नोट देते हैं और अपना खुद का ग्यारह सीटों वाला हवाई जहाज 'आजाद हिन्द' भी उनके हवाले कर देते हैं कि वे बैंकॉक जाकर आराम फरमा सकें!

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इन बातों के अलावे, जैसा कि हम जानते ही हैं कि बंगाल के अकाल से निपटने के लिए नेताजी बर्मा से चावल भेजने का प्रस्ताव भारत भेजते हैं, मगर ब्रिटिश सरकार इसे स्वीकार नहीं करती।

(प्रसंगवश यह भी जान लिया जाय कि धान पैदा करने वाले खेतों में अँग्रेजों द्वारा जबरन नील की खेती करवाये जाने के कारण ये दुर्भिक्ष पड़ते थे, जिसमें लाखों की संख्या में लोग अनाहार से मारे जाते थे; मगर इस दौरान भारत से ब्रिटेन भेजे जाने वाले चावल की मात्रा में कोई कटौती नहीं की जाती थी!)

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1 मई 1945।

गोरखा सैनिकों का एक पैराशूट बटालियन एलिफैण्ट प्वाइंट पर उतरता है और रंगून नदी के मुहाने से जापानी मोर्चेबन्दी को हटाता है।

2 मई।

26वीं इन्फैण्ट्री डिवीजन के सैनिक जलजहाजों से तट पर पहुँचते हैं और रंगून नगर में प्रवेश करते हैं। 

कुछ ही घण्टों बाद शुरु होती है मौनसून की मूसलाधार वर्षा। 

लोकनाथन अपने सैनिकों के साथ 4 मई को बाकायदे आत्म-समर्पण करते हैं और नगर की कानून-व्यवस्था ब्रिटिश सैनिकों को सौंपते हैं।

हाँ, इस बीच आजाद हिन्द सरकार और आजाद हिन्द फौज के सभी दस्तावेज जला दिये जाते हैं, ताकि स्वयंसेवकों के रुप में शामिल लोग वापस नागरिकों से घुल-मिल जायें और ब्रिटिश उन्हें खोजकर न निकाल सके। (दस्तावेज न होने के कारण ही आजाद हिन्द फौज के सांगठनिक ढाँचे तथा संख्याबल के बारे में सटीक और प्रामाणिक जानकारियाँ आज नहीं मिलती।) 

जापानी सेना को अपने एक डिवीजन- 28वीं वाहिनी- का इन्तजार है, जो अराकान से लौटकर तथा इरावडी के तट पर युद्ध करके फिलहाल इरावडी और सितांग नदियों के बीच पेगु-योमा के जंगलों में फँसी हुई है। किमुरा की मुख्य सेना से मिलने के लिए उसे वर्षा में फूली हुई सितांग नदी को पार करना है। इन्हें सुरक्षा देने के लिए किमुरा 33वीं वाहिनी (जो संख्याबल में डिवीजन से घटकर रेजीमेण्ट के बराबर रह गयी है) को भेजते हैं, पर समय गड़बड़ा जाता है। 33वीं वाहिनी 10 जुलाई को सितांग बेण्ड पर संयुक्त सेना पर आक्रमण करती है, मगर बाढ़ के कारण दोनों ही सेनाएँ युद्ध करना छोड़ वापस लौट जाती है। उधर 28वीं वाहिनी के जवान 17 जुलाई को नदी पार करते हैं। बाँस-बल्लियों से बने कामचलाऊ बेड़े एक तो ऐसे ही कारगर नहीं है, ऊपर से नदी के किनारे तैनात संयुक्त सेना की तोपें उनपर भारी गोलाबारी करती है। नदी में गिरने वाले सैनिकों को बर्मी गुरिल्ले नदी के पूर्वी तट पर निशाना बनाते हैं। साकुराई की इस वाहिनी के 20,000 में से 10,000 सैनिक यहाँ मारे जाते हैं।

इम्फाल-कोहिमा-बर्मा अभियान में अपने 1,20,000 जाँबाज सैनिकों में से लगभग 70,000 को खोकर जापान की बर्मा एरिया आर्मी 13 सितम्बर 1945 को आधिकारिक रुप से आत्मसमर्पण करती है।

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नेताजी अपने लगभग पचास प्रतिशत सैनिकों को खोकर बाकी सैनिकों के साथ बैंकॉक होते हुए सिंगापुर पहुँचते हैं।

8 जुलाई 1945 को नेताजी शहीद सैनिकों की याद में एक स्मारक का शिलान्यास करते हैं तथा कुछ दिनों बाद (स्मारक बनने पर) उन्हें श्रद्धाँजली अर्पित करते हैं।

माउण्टबेटन के नेतृत्व में संयुक्त सेनाएँ बर्मा विजय को पूरा कर अब सिंगापुर को वापस अपने अधिकार में लेने के लिए तैयार है।

सिंगापुर में नेताजी अपनी दो चाक-चौबन्द बटालियन के साथ माउण्टबेटन की सेना से भिड़ने के लिए तैयार हैं।

ब्रिटेन नेताजी को युद्धबन्दी बनाकर भारत की धरती पर लाने का खतरा नहीं उठा सकता। अतः रंगून से सिंगापुर की ओर कूच करने वाली अपनी सेना को उसका स्पष्ट आदेश है:

बोस से मौके पर ही निपट लिया जाय।

(Deal with Bose on the spot!)