5.1.2 आखिर क्या हुआ होगा नेताजी का? (क्या नेताजी देश लौट आये?)

 

2री सम्भावना पर विस्तृत चर्चा

दूसरी सम्भावना यह है कि नेताजी भारत लौट आये। मगर कब? क्या स्तालिन की ही अवधि में? इसकी सम्भावना कम नजर आती है। उन दिनों भारत और सोवियत संघ के बीच या नेहरूजी और स्तालिन के बीच सम्बन्ध इतने घनिष्ठ तो नहीं ही थे- कि नेताजी और नेहरूजी के बीच किसी समझौते की गुंजाईश बने। (नेहरूजी के प्रधानमंत्री बनने पर स्तालिन कोई प्रसन्नता जाहिर नहीं करते हैं; न ही वे (राजदूत) विजयलक्ष्मी पण्डित को मिलने का समय देते हैं।)

मार्च 1953 में स्तालिन की मृत्यु होती है और उनके द्वारा साइबेरिया की जेलों में बन्दी बनाये गये लोगों के ‘पुनर्वास’ का कार्यक्रम 1955 में शुरु होता है। जाहिर है, ‘नेताजी’ के भी ‘पुनर्वास’ का प्रश्न तब उठा होगा। ‘पुनर्वास’ के लिए नेताजी ने भारत आना चाहा होगा। उधर नेहरूजी ‘अराजकता’ फैलने के खतरों के कारण नहीं चाहते कि नेताजी भारत आयें। ऐसे में, सोवियत राष्ट्रपति निकिता ख्रुश्चेव ने मध्यस्थता की होगी। फैसला यही हुआ होगा कि नेताजी भारत में ही अपना जीवन गुजारेंगे, मगर ‘अप्रकट’ रहकर, जिससे कि देश में किसी प्रकार की राजनीतिक अस्थिरता की स्थिति पैदा न हो।

 ‘अराजकता’ या ‘राजनीतिक अस्थिरता’ के अलावे कुछ अन्य बातों पर भी ध्यान देने की जरूरत है: अगर नेताजी ‘प्रकट’ हो जाते हैं, तो

1. कर्नल हबिबुर्रहमान सहित उनके दर्जनों सहयोगी और जापान देश दुनिया के सामने झूठा साबित हो जाता है।

2. उन्हें ब्रिटिश-अमेरीकी हाथों/आँखों से बचाने के लिए किये गये सारे प्रयासों पर पानी फिर जाता है।

3. 21 अक्तूबर 1943 के दिन उन्होंने शपथ ली थी- ...मैं सुभाष चन्द्र बोस, अपने जीवन की आखिरी साँस तक आजादी की इस पवित्र लड़ाई को जारी रखूँगा... । ...मगर वे ऐसा नहीं कर पाते और उन्हें लगता होगा कि अब अपने देशवासियों के बीच शान से जीने का उन्हें हक नहीं है।  

खैर, ‘अप्रकट’ रहने के कारण चाहे जितने भी हों, मगर इतना है कि 1941 का जियाउद्दीन..., 1941-42 का काउण्ट ऑरलैण्डो माजोत्ता..., 1943 का मस्तुदा..., 1945 का खिल्सायी मलंग... अन्तिम बार के लिए एक और छद्म नाम और रूप धारण करता है... और सोवियत संघ से भारत में प्रवेश करता है...

...भारत माँ के सबसे बहादूर सपूतों में से एक- सुभाष- आधी दुनिया का चक्कर लगाकर..., दीर्घ चौदह वर्षों का वनवास और अज्ञातवास काटकर... माँ की गोद में लौटता है...

...कोई माने या न माने, मगर नेताजी अपनी मातृभूमि की आँचल में अपना शेष जीवन बिताने जरूर लौटे होंगे...

अब लाख टके का सवाल यह है कि इस अन्तिम बार के लिए नेताजी कौन-सा नाम और रूप धारण करते हैं?

 

2.क) क्या नेताजी ने ‘गुमनामी बाबा’ का रूप धारण किया था?

प्रचलित कहानी के अनुसार, 1950 के दशक में (हो सकता है, 1955 में ही) ‘दशनामी’ सम्प्रदाय के एक सन्यासी नेपाल के रास्ते भारत में प्रवेश करते हैं। नीमशहर और बस्ती में वे अपना एकाकी जीवन बिताते हैं। उन्हें ‘भगवानजी’ के नाम से जाना जाता है।

बताया जाता है कि नेताजी को पहले से जानने वाले कुछ लोग- जैसे, उनके कुछ रिश्तेदार, कुछ शुभचिन्तक, कुछ स्वतंत्रता सेनानी, कुछ आजाद हिन्द फौज के अधिकारी- उनसे गुप-चुप रूप से मिलते रहते थे। खासकर, 23 जनवरी और दुर्गापूजा के दिन मिलने-जुलने वालों की तादाद बढ़ जाती थी।

पहचान खुलने के भय से और कुछ अर्थाभाव के कारण 1983 में- 86 वर्ष की अवस्था में- वे पुरानी जगह बदल देते हैं और फैजाबाद (अयोध्या) आ जाते हैं। (ध्यान रहे, नेताजी का जन्म 23 जनवरी 1897 को हुआ था।)

1975 से ही उनके भक्त बने डॉ. आर.पी. मिश्रा ‘रामभवन’ में उनके लिए दो कमरे किराये पर लेते हैं। यहाँ भगवानजी एकान्त में रहते हैं, पर्दे के पीछे से ही लोगों से बातचीत करते हैं और रात के अन्धेरे में ही उन्हें जानने वाले उनसे मिलने आते हैं। यहाँ तक कि उनके मकान-मालिक गुरुबसन्त सिंह भी दो वर्षों में सामने से उनका चेहरा नहीं देख पाते हैं। उनकी देखभाल के लिए सरस्वती देवी अपने बेटे राजकुमार मिश्रा के साथ रहती हैं। भगवानजी इतने गोपनीय ढंग से रहते हैं कि उन्हें ‘गुमनामी बाबा’ का नाम मिल जाता है, जो गुमनाम ही रहना चाहता हो।

16 सितम्बर 1985 को गुमनामी बाबा का देहान्त होता है। 18 सितम्बर को उनके भक्तजन बाकायदे तिरंगे में लपेटकर उनका पार्थिव शरीर सरयू तट के गुप्तार घाट पर ले जाते हैं और तेरह लोगों की उपस्थिति में उनका अन्तिम संस्कार कर दिया जाता है।

इसके बाद खबर जोर पकड़ती है कि है कि गुमनामी बाबा नेताजी थे। ‘दशनामी सन्यासी’ उर्फ ‘भगवान जी’ उर्फ ‘गुमनामी बाबा’ को नेताजी मानने के पीछे कारण हैं: उनकी कद-काठी, बोल-चाल इत्यादि नेताजी जैसा होना; कम-से-कम चार मौकों पर उनका यह स्वीकारना कि वे नेताजी हैं; उनके सामान में नेताजी के पारिवारिक तस्वीरों का पाया जाना; नेताजी के करीबी रहे लोगों से उनकी घनिष्ठता तथा पत्र-व्यवहार; बात-चीत में उनका जर्मनी आदि देशों का जिक्र करना; इत्यादि।

गुमनामी बाबा के सामान को प्रशासन नीलाम करने जा रहा था। ललिता बोस, एम.ए. हलीम और विश्वबन्धु तिवारी कोर्ट गये, तब जाकर (अदालत के आदेश पर) मार्च’ 86 से सितम्बर’ 87 के बीच उनके सामान को 24 ट्रंकों में सील किया गया।

26 नवम्बर 2001 को इन ट्रंकों के सील मुखर्जी आयोग के सामने खोले जाते हैं और इनमें बन्द 2,600 से भी अधिक चीजों की जाँच की जाती है। पुस्तकों, पत्र-पत्रिकाओं के अलावे इन चीजों में नामी-गिरामी लोगों- जैसे, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के गुरूजी, पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री तथा राज्यपाल- के पत्र, नेताजी से जुड़े समाचारों एवं लेखों के कतरन, रोलेक्स और ओमेगा की दो कलाई-घड़ियाँ (कहते हैं कि ऐसी ही घड़ियाँ नेताजी पहनते थे), जर्मन (16 गुणा 56) दूरबीन, इंगलिश (कोरोना एम्पायर) टाईपराइटर, कुछ पारिवारिक छायाचित्र, हाथी दाँत का (टूटा हुआ) स्मोकिंग पाईप इत्यादी हैं। यहाँ तक कि नेताजी के बड़े भाई सुरेश बोस को खोसला आयोग द्वारा भेजे गये सम्मन की मूल प्रति भी है।

अपनी रिपोर्ट में श्री मनोज कुमार मुखर्जी तीन कारणों से ‘गुमनामी बाबा’ को ‘नेताजी’ घोषित नहीं करते:

1. बाबा को करीब से जानने वाले लोग स्वर्गवासी हो चुके हैं, अतः वे गवाही के लिए उपलब्ध नहीं हो सकते;

2. बाबा का कोई छायाचित्र उपलब्ध नहीं है, और

3. सरकारी फोरेंसिक लैब ने उनके ‘हस्तलेख’ और ‘दाँतों’ की डी.एन.ए. जाँच का रिपोर्ट ऋणात्मक दिया है।

ये दाँत एक माचिस की डिबिया में रखे पाये गये थे। मुखर्जी आयोग ने नेताजी के परिवारजनों से नमूने लेकर इन दाँतों का डी.एन.ए. टेस्ट करवाया था- परिणाम यही आया कि गुमनामी बाबा नेताजी नहीं हैं। गुमनामी बाबा के हाथ की लिखावट का मिलान भी नेताजी की लिखावट से करवाया गया था- इसका परिणाम भी विशेषज्ञों ने ऋणात्मक दिया।

हालाँकि यह भी कहा जाता है कि अच्छा होता, अगर जस्टिस मुखर्जी ने ये जाँच भारत के बाहर के फोरेंसिक लैबों में भी करवाये होते।

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जिज्ञासु प्रवृत्ति वालों के मन में यह सवाल उठ सकता है कि अगर गुमनामी बाबा (दाँतों की डी.एन.ए. जाँच के आलोक में) नेताजी नहीं हैं, तो फिर वे कौन हैं और क्यों प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से वे यह आभास दिलाने की कोशिश कर रहे हैं कि वे नेताजी हैं? इस प्रश्न के उत्तर में दो सम्भावनायें नजर आती हैं:

1. या तो वे एक सामान्य सन्यासी हैं, जिनकी कद-काठी, उम्र इत्यादि नेताजी के समान है। वे इनका फायदा उठा रहे हैं। ऐसे में, उनके पास जो सामान पाये गये, उनके बारे में यही कहा जा सकता है कि इन्हें उनके भक्तों ने उन तक पहुँचाये होंगे, जो जाने-अनजाने में उन्हें श्रद्धा-भाव से नेताजी मानते थे।

2. या फिर, उन्हें भारत सरकार के गुप्तचर विभाग ने मई’ 64 के बाद खड़ा किया है- ताकि लोगों का ध्यान स्वामी शारदानन्द की ओर (जिक्र अगले अनुच्छेद में) न जाये। या लोग ‘ये असली नेताजी हैं’ और ‘वे असली नेताजी हैं’ के झगड़े में उलझे रहें और सरकार चैन की साँस लेती रहे। ऐसे में, स्वयं गुप्तचर विभाग ने उन तक ये सामान पहुँचाये होंगे।

अब तक हमने भी नेताजी की मानसिक बुनावट तथा व्यक्तित्व को जितना समझा है, उससे यही लगता है कि एकबार सन्यास धारण करने के बाद नेताजी न तो अपने पारिवारिक छायाचित्रों के मोह से बँधे रहेंगे, न अपने से सम्बन्धित पुस्तकों, लेखों, समाचारों का संकलन करेंगे, और न ही कभी किसी के सामने अपनी पहचान व्यक्त करेंगे!

रही बात नेताजी के टाईपराईटर और दूरबीन की, तो उनकी ये चीजें या तो 51, युनिवर्सिटी एवेन्यू, रंगून वाले मुख्यालय में रह गयी होंगी; या सिंगापुर मुख्यालय में: या फिर, याकुत्स्क शहर (साईबेरिया) की जेल की कोठरी नम्बर 465 में। (प्रसंगवश: उनकी एक कुर्सी को रंगून से लाकर ‘लाल किले’ में ससम्मान प्रतिष्ठित किया गया है।)

अगर माउण्टबेटन की सेना ने रंगून और सिंगापुर के मुख्यालयों से नेताजी की वस्तुओं को जब्त कर सरकारी खजाने में पहुँचा दिया होगा, तो वहाँ से इन दोनों चीजों को निकालकर गुमनामी बाबा तक पहुँचाना बेशक गुप्तचर विभाग के ही बस की बात है। या, बिलकुल उन-जैसी चीजों की व्यवस्था करना भी उन्हीं से सम्भव है।    

 

2.ख) क्या नेताजी ने ‘स्वामी शारदानन्द’ का रूप धारण किया था?

29 सितम्बर 1961 को एक शिक्षक श्री राधेश्याम जायसवाल पत्र लिखकर नेहरूजी को सूचित करते हैं कि सिलहट के पास शौलमारी आश्रम के साधू की गतिविधियाँ सन्देहास्पद हैं। वे चैन-स्मोकर हैं- आयातित सिगरेट पीते हैं; रूसी, चीनी, जर्मन इत्यादि भाषाओं के जानकार हैं; और उनके आश्रम के आस-पास ऐसी अफवाह है कि वे नेताजी हैं। श्री जायसवाल को सन्देह था कि आश्रम में कोई विदेशी षड्यंत्र चल रहा है।

(चैन-स्मोकर- लगातार सिगरेट पीने वाले। नेताजी भी आयातित सिगरेट का शौक रखते थे, यह उनके एक छायाचित्र से पता चलता है।)

आश्रम के साधू हैं- स्वामी शारदानन्द। (नेताजी के लालन-पालन में माँ के अलावे जिन महिला का हाथ रहा है, उनका नाम ‘शारदा’ था।) साल-डेढ़ साल पहले कूच बिहार जिले (पश्चिम बंगाल) के फालाकाटा में उन्होंने शौलमारी आश्रम की स्थापना की है।

गुप्तचर विभाग वाले आश्रम की गतिविधियों की जाँच करते हैं और अपनी रिपोर्ट में कहते हैं कि वहाँ कुछ गलत नहीं है।

दिल्ली के ‘वीर अर्जुन’ दैनिक में खबर छपती है। नेताजी के भक्त और आजाद हिन्द फौज वाले आश्रम पहुँचने लगते हैं। फौजी जब आश्रम से बाहर आते हैं, तब उनके होंठ सिले होते हैं। सिर्फ एक मेजर सत्यप्रकाश गुप्ता कोलकाता में (फरवरी’ 62 में) प्रेस कॉन्फ्रेन्स कर घोषणा करते हैं कि शारदानन्द नेताजी हैं।

इस बीच श्री उत्तम चन्द मल्होत्रा भी 30-31 जुलाई 1962 को शारदानन्द से मिलते हैं और मिलने के बाद दावा करते हैं कि उन्होंने पहचान लिया है- आश्रम के सन्यासी ‘शारदानन्द’ और कोई नहीं, बल्कि नेताजी हैं!

उत्तम चन्द मल्होत्रा वे व्यक्ति हैं, जिनके साथ एक ही कमरे में नेताजी ने 46 दिन बिताये थे- काबुल में, जब वे (नेताजी) जियाउद्दीन का भेष धारण कर यूरोप जाने का प्रयास कर रहे थे और दूसरी तरफ ब्रिटिश जासूस उनकी जान के पीछे पड़े थे।

       27 मई 1964 के दिन स्वामी शारदानन्द नेहरूजी की अन्तिम यात्रा में शामिल होने दिल्ली आते हैं। नेहरूजी के पार्थिव शरीर के पास खड़े मुद्रा में उनकी तस्वीर मुम्बई से प्रकाशित होने वाले दमदार साप्ताहिक ‘ब्लिट्ज’ में छप जाती है।

तस्वीर छपने के बाद से स्वामी शारदानन्द को आठ महीनों के लिए ‘अज्ञात’ होना पड़ता है। (क्या भारत सरकार के गुप्तचर विभाग के निर्देश पर?) इसके बाद भी लगभग आठ वर्षों तक वे देशाटन पर ही रहते हैं और प्रकाश में नहीं आते।

जनमानस उस तस्वीर को भूलने लगता है।  

       1972 में सरकार उन्हें देहरादून और मसूरी के बीच राजपुरा में एक कोठी (नं-194) और कुछ जमीन मुहैया कराती है। उनकी उम्र 76 वर्ष हो चली है, भटकने की उम्र अब नहीं रही। अब शायद वे ज्यादा जीयेंगे भी नहीं। अब वे सफेद दाढ़ी रखने लगे हैं। (क्या यह भी गुप्तचर विभाग का निर्देश है?)

उन्हें कोठी श्रीमती नयनतारा सहगल की कोठी के पास दिया जाता है। नयनतारा सहगल बेटी हैं श्रीमती विजयलक्ष्मी पण्डित की। स्वामी जी को कोठी दिलाने में जरूर उन्होंने ही मदद की है। आप सोचेंगे क्यों? क्योंकि नेताजी की बेटी अनिता बोस जब 18 वर्ष की उम्र में पहली बार भारत आयी थी (1960 में), तब दिल्ली में 5 दिनों के लिए श्रीमती नयनतारा सहगल ने ही उन्हें अपने घर में रखा था। अर्थात् नेताजी के साथ उनका एक तरह से पारिवारिक रिश्ता पहले से ही है।

यहाँ स्वामी जी शान्ति से अपना जीवन गुजारते हैं। लोगों से उनकी बात-चीत नहीं के बराबर है। उनके पास कोई सामान नहीं है। फर्नीचर के नाम पर सिर्फ एक कुर्सी है। प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष- किसी भी रूप से- वे यह आभास दिलाने की कोशिश नहीं करते कि वे नेताजी हैं।  

कहा जाता है कि स्वामी शारदानन्द ने 110 दिनों की समाधि ली थी। 93वें दिन उनके गर्दन के पीछे रक्त की एक बूँद शरीर से बाहर आती है और इस प्रकार, 13 अप्रैल 1977 को वे देह त्यागते हैं।

उत्तर प्रदेश पुलिस एवं प्रशासन के संरक्षण में स्वामी शारदानन्द जी का अन्तिम संस्कार ऋषिकेष में गंगा किनारे होता है।

श्री अजमेर सिंह रन्धावा, जो कि इस अन्तिम संस्कार के एक प्रत्यक्षदर्शी रहे हैं, का कहना है कि स्वामी शारदानन्द के पार्थिव शरीर को तिरंगे में लपेट कर दस दिनों तक जनता के दर्शनार्थ रखा गया था और उनका अन्तिम संस्कार- बन्दूकों की सलामी सहित- पूर्ण राजकीय सम्मान के साथ हुआ था।

उनके अनुसार, बहुत-से गणमान्य लोगों के अलावे श्री उत्तम चन्द मल्होत्रा तथा नेताजी की एक भतीजी अपने बेटे के साथ यहाँ आयीं थीं- अन्तिम दर्शनों के लिए।

(श्री रन्धावा एक रोचक बात की जानकारी देते हैं। जब कभी श्री रन्धावा की टैक्सी स्वामी जी के लिए मँगवायी जाती थी, एक नौकर पहले एक बाल्टी पानी लाकर टैक्सी के अन्दर-बाहर पोंछा लगाता था, तब जाकर स्वामी जी टैक्सी में बैठते थे। बाल्टी के पानी में कुछ कटे हुए नीम्बू तैरते रहते थे। तब श्री रन्धावा स्वामी जी को एक सामान्य सन्यासी तथा इस ‘नीम्बू-पानी’ को एक टोटका समझते थे। स्वामी जी के देह त्यागने के बाद जब उनके ‘नेताजी’ होने की भनक उन्हें मिली, तब जाकर उन्हें ‘नीम्बू-पानी’ का रहस्य समझ में आया- नीम्बू का अम्ल (एसिटिक एसिड) उँगलियों की छाप (फिंगरप्रिण्ट) लेने वाले पाउडर को नाकाम कर देता है!)  

डॉ. सुरेश पाध्ये, जो पिछले प्रायः दस वर्षों से स्वामीजी के सान्निध्य में थे, का कहना है कि उन्होंने छायाकार श्री एस. जोगी के माध्यम से अन्तिम संस्कार के फोटो खिंचवाये थे, जिन्हें निगेटिव सहित तत्कालीन पुलिस कप्तान (एस.पी.) जोशी जब्त कर लेते हैं।   

स्वामी शारदानन्द के अस्थिभस्म को गंगाजी में प्रवाहित करते हुए उनके सचिव डॉ. रमनी रंजन दास नेताजी कहकर उन्हें अन्तिम श्रद्धाँजली देते हैं। पीछे खड़े पुलिस अधिकारी इन्दरपाल सिंह चौंक पड़ते हैं-

अब तक तो आप यही कहते आ रहे थे कि ये साधू नेताजी नहीं हैं!

डॉ. दास शुरू से ही (1959-60 से, या हो सकता है 1955 से, जब से नेताजी के सोवियत संघ से भारत में प्रवेश करने की सम्भावना है) स्वामी शारदानन्द के सचिव हैं। हो सकता है... सचिव के रुप में वे भारतीय गुप्तचर सेवा के अधिकारी रहे हों!

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जहाँ तक नेताजी के परिवारजनों की बात है, वे सम्भवतः जानते थे कि ‘गुमनामी बाबा’ और ‘स्वामी शारदानन्द’ में से नेताजी कौन हैं। नेताजी की ‘अप्रकट’ रहने की ईच्छा तथा भारत सरकार का सम्मान बरकरार रखने के लिए वे चुप रहते थे। इस बात का अनुमान डॉ. सुरेश पाध्ये के कथन से लगाया जा सकता है।

डॉ. पाध्ये के कथनानुसार, 1971 में जब वे मुम्बई राजभवन में खोसला आयोग के सामने सच्चाई बयान करने जा रहे थे (उन दिनों स्वामीजी महाराष्ट्र में सतपुरा के मेलघाट के जंगलों में में रहते थे और डॉ. पाध्ये उनके सम्पर्क में थे), तब आयोग में नेताजी के परिवार के वकील श्री निहारेन्दु दत्त मजुमदार तथा नेताजी के सबसे छोटे भाई श्री शैलेश चन्द्र बोस और उनकी पत्नी ने एम.एल.ए. हॉस्टल में उनसे मुलाकात कर नेताजी की ईच्छा का सम्मान रखने का अनुरोध किया था। 

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परिस्थितिजन्य साक्ष्यों तथा अनुमानों के आधार पर सभी सम्भावनाओं एवं विकल्पों का विश्लेषण करने के बाद निष्कर्ष के रुप में तो यही कहा जा सकता है कि नेताजी स्वामी शारदानन्द के रुप में देश में रह रहे थे। नेताजी के चेहरे के साथ स्वामी शारदानन्द के चेहरे की समानता भी इस निष्कर्ष की पुष्टि करती है, जैसा कि स्वामी शारदानन्द के उपलब्ध एकमात्र छायाचित्र से स्पष्ट है।

चूँकि दस्तावेजी सबूत नहीं हैं; इसलिए आईए, यहाँ हम सब मिलकर सर्वशक्तिमान से प्रार्थना करें कि वह हमारी सरकार को सद्-बुद्धि प्रदान करे कि वह जल्द-से-जल्द नेताजी से जुड़े गोपनीय दस्तावेजों को प्रकाशित करे...

आमीन... एवमस्तु...