2.7 बर्लिन से टोक्यो: दो पनडुब्बियों में नब्बे दिन

 

9 फरवरी 43 को जर्मनी के किएल शहर से रवाना होकर जर्मन पनडुब्बी यू-180 ग्रेट ब्रिटेन का चक्कर लगाकर अन्ध (अटलान्टिक) महासागर में प्रवेश करता है

अफ्रिका के दक्षिणी छोर (उत्तमाशा अन्तरीप– केप ऑव गुडहोप) तक पहुँचने में इसे ढाई महीने लग जाते हैं। रास्ते में इसे न केवल दुश्मन के गश्ती दलों से बचना होता है, बल्कि ‘समुद्री माईन्स’ का भी खतरा होता है

इस यात्रा में जर्मन सैनिकों का व्यवहार नेताजी के प्रति कुछ ऐसा है- मानो, वे अपने किसी देवता को साथ लेकर चल रहे हों!

उधर जापान 20 अप्रैल को पेनांग द्वीप (मलेशिया के पास) से नेताजी को लिवाने के लिए अपनी पनडुब्बी आई-29 को रवाना करता है। पनडुब्बी के कमाण्डर हैं- कैप्टन मासाओ तेराओका (Masao Teraoka)।

माडागास्कर से 640 किलोमीटर दक्षिण-पश्चिम में दोनों पनडुब्बियाँ पूर्वनिर्धारित योजना के तहत आकर रुकती हैं। यह तारीख है- 26 अप्रैल 1943।

अगले दिन दोनों एक-दूसरे से पहचान स्थापित करती हैं। शान्त समुद्र के लिए थोड़ा उत्तर-पूर्व की ओर बढ़ा जाता है।

28 अप्रैल को रबर की नौका (राफ्ट या डिंगी) पर सवार होकर नेताजी जर्मन पनडुब्बी से निकल कर जापानी पनडुब्बी में सवार होते हैं।

जर्मनी ने जापान के लिए जेट इंजन बनाने की विधि तथा कुछ और तकनीकी जानकारियाँ भी भेजी हैं, जिसके बदले जापान दो टन सोना लाया है। इनका भी आदान-प्रदान होता है।

(विश्वयुद्ध में एक पनडुब्बी से दूसरी में यात्रियों के स्थानान्तरण की यह एकमात्र घटना है।)

जापानी पनडुब्बी हिन्द महासागर पार करते हुए 6 मई 43 के दिन सुमात्रा के उत्तर में एक निर्जन टापू सबांग पर पहुँचता है। इस प्रकार, नेताजी दो पनडुब्बियों में लगभग 90 दिनों की यात्रा करते हैं।

(हालाँकि योजना पेनाँग पहुँचने की थी, मगर दुश्मन के जासूसों की नजर से बचने के लिए सबांग पर लंगर डाला जाता है।)

यहाँ हिकारी-किकान (भारत-जापान सम्पर्क समूह) के नये नेता कर्नल यामामोतो नेताजी का स्वागत करते हैं। ये वही यामामोतो हैं- जर्मनी वाले नेताजी के मित्र, जो विमान द्वारा पहले ही जापान पहुँच चुके हैं और जिन्हें ‘हिकारी-किकान’ का नया नेता बनाया गया है

दोनों को टोक्यो पहुँचाने वाला विमान देर करता है और सबांग में उन्हें 5 दिनों तक रुकना पड़ता है इसके बाद पेनांग, मनीला, सायगन (अब हो-चि-मिन्ह सिटी) और फारमोसा (अब ताईवान) होते हुए कर्नल यामामोतो के साथ नेताजी 16 मई को अन्ततः टोक्यो पहुँचते हैं।

जर्मनी से जापान पहुँचने तक और इसके बाद भी एक महीने तक नेताजी की पहचान को गुप्त रखा जाता है। उन्हें एक जापानी अति महत्वपूर्ण व्यक्ति ‘मस्तुदा’ के नाम से सम्बोधित किया जाता है।