1.7 “सुभाष को खोजो और मार डालो”

 

    काबुल में लाहौरी गेट के पास एक सराय में वे लोग ठहरते हैं। इलाका अच्छा नहीं है।

एक अफगानी पुलिसवाले को उनपर शक होने लगता है। वह बार-बार चक्कर लगाता है। अन्त में नेताजी अपनी हाथघड़ी देकर उससे पीछा छुड़ाते हैं।  

नेताजी सोवियत दूतावास से सम्पर्क करते हैं, मगर उन्हें ठण्डा स्वागत मिलता है। स्तालिन ने भले हिटलर से ‘अनाक्रमण सन्धि’ कर रखी है, पर हिटलर पर उन्हें भरोसा नहीं है। सोवियत संघ पर नाज़ी आक्रमण होने की दशा में सोवियत को ‘मित्र राष्ट्र’ की शरण में जाना पड़ेगा- तब ब्रिटेन और सोवियत एक ही पाले में होंगे। शायद इसीलिए सोवियत दूतावास नेताजी को टाल रहा है।

मगर नेताजी को यूरोप पहुँचना ही है। वे ‘धुरी राष्ट्र’ के दोनों देशों- जर्मनी और इटली- के दूतावासों से सम्पर्क करते हैं। यहाँ भी देर होती है। इन सबमें डेढ़ महीने बीत जाते हैं- यह नेताजी के लिए व्यग्रता का दौर है।

इसी बीच एक इतावली राजनयिक द्वारा भेजे गये सन्देश से नेताजी के काबुल में होने का राज खुल जाता है। भारत में बिजली की एक लहर-सी दौड़ जाती है।

एक ओर- देशवासी खुश हो जाते हैं कि उनका नेता देश को आजाद कराने के लिए किसी खास मिशन पर है; और दूसरी तरफ, ब्रिटिश सरकार गुस्से में आग-बबूला हो जाती है।

तुर्की में तैनात अपने गुप्तचर विभाग के विशेष एजेण्टों (Special Operations Executives- SOE) को लन्दन गुप्त आदेश जारी करता है- सुभाष चन्द्र बोस को खोजो और उसकी हत्या कर दो। किसी कीमत पर उसे यूरोप नहीं पहुँचने देना है।

मगर ये एजेण्ट नेताजी को खोज नहीं पाते हैं- उन्हें क्या पता कि नेताजी यहाँ पाँच फीट साढ़े आठ ईंच ऊँचे अफगानी पठान ‘जियाउद्दीन’ की वेशभूषा में हैं!

अन्त में इतावली दूतावास ‘काउण्ट ओरलाण्डो मज्जोत्ता’ के पासपोर्ट पर नेताजी को मास्को भेजने की व्यवस्था करता है।