4.7.3 नेताजी सोवियत संघ में ही थे! (चार परिस्थितियाँ)

अब हम यह अनुमान लगायेंगे कि सोवियत संघ में रहते हुए नेताजी किन-किन स्थितियों से गुजरे होंगे।

 

पहली स्थिति: नेताजी ने सोवियत सेना की मदद माँगी होगी

सिंगापुर छोड़ते वक्त नेताजी ने घोषणा की थी कि ‘उनकी आजाद हिन्द सरकार आत्म-समर्पण नहीं करेगी, और वे भारत को आजाद कराने के लिए नये सिरे से युद्ध की शुरुआत करेंगे’ साथ ही, अपने विश्वस्त सहयोगियों से उन्होंने यह भी कहा था कि. ‘भारत दो वर्षों के भीतर आजाद हो जायेगा

(भारत ठीक दो वर्ष बाद अगस्त’ 47 में आजाद होता है। तथ्यों और परिस्थितियों का आकलन करते हुए किये गये नेताजी के पूर्वानुमान कभी गलत नहीं हुए। जहाँ तक ‘इम्फाल-कोहिमा’ युद्ध में हार की बात है- वास्तव में नेताजी इस सैन्य कार्रवाई का इस्तेमाल एक चिन्गारी के रुप में करके ब्रिटिश सेना के अन्दर बगावत की ज्वाला भड़काना चाहते थे। ऐसा होता भी है, मगर तुरन्त न होकर कुछ समय के बाद। इसे देश का दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है।)

अर्थात् सोवियत संघ पहुँचने के बाद नेताजी ने सोवियत सेना की मदद से भारत को आजाद कराने की एक योजना बनायी होगी। साथ ही, वे यह भी जानते थे कि अगर सोवियत मदद न मिली, तो भी दो साल में देश को आजाद होना ही है।

नेताजी ने अपनी ओर से कोशिश जरूर की होगी- यह उनके स्वभाव से पता चलता है- 1939 में जब गाँधीजी किसी प्रगतिशील विचारवाले नेता को काँग्रेस का भावी अध्यक्ष नामित नहीं करते, तो परम्परा तोड़ते हुए नेताजी ने दुबारा अध्यक्ष बनना चाहा था। आज 1945 में भी, भारत को अपने ढंग की एक सरकार देने का सपना वे जरूर देख रहे होंगे।

दूसरी तरफ, नेताजी के समाजवादी विचारों से प्रभावित स्तालिन भी चाहेंगे कि नये भारत में उन्हीं के सहयोग से नेताजी के नेतृत्व में एक अधिनायकवादी तथा सैन्य-अनुशासन वाली सरकार ही बने। अतः सोवियत सेना के भारत प्रवेश की कोई ‘योजना’ सोवियत संघ में जरूर बनी होगी- चाहे वह कागजों में ही रह गयी हो। तभी तो (’46 में) मुम्बई से के.जी.बी. का एजेण्ट लिखता है- ‘हमें बोस का इस्तेमाल करना ही होगा।’

(स्तालिन वास्तव में नेताजी के विचारों से प्रभावित थे और ’44 में नेताजी का समर्थन न करने के लिए उन्होंने भारतीय साम्यवादी नेताओं की भर्त्सना की थी। भारतीय साम्यवादियों ने ब्रिटिश साम्यवादी दल के प्रभाव में नेताजी के विरोध का फैसला लिया था।)

सोवियत सेना के भारत प्रवेश की योजना कई कारणों से ठण्डे बस्ते में चली गयी होगी- ब्रिटेन और सोवियत संघ दोनों (अभी) एक ही पाले में हैं... बड़े खून-खराबे के बाद विश्वयुद्ध समाप्त हुआ है..., ‘युद्ध’ के खिलाफ ‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ का गठन हो रहा है..., सोवियत-भारत के बीच हिमालय खड़ा है..., सोवियत सैनिक थके-हारे हैं और अब आराम चाहते हैं..., वगैरह-वगैरह... ।

कुल-मिलाकर, नेताजी सोवियत संघ से कोई नयी ‘मुक्ति सेना’ लेकर भारत नहीं आते।

यह और बात है कि भारत में उन दिनों, और आजादी के बाद भी कुछ समय तक, ऐसी स्थिति थी कि- रूसी सेना के साथ विमान में बैठकर नेताजी अब दिल्ली पहुँचे कि तब पहुँचे!

 

दूसरी स्थिति: नेताजी ने स्वतंत्र भारत में ‘अ-राजनीतिक’ जीवन बिताना चाहा होगा

चूँकि नेताजी को सोवियत सेना की मदद नहीं मिलती है, अतः अब नेताजी को सोवियत संघ में बैठकर भारत को बँटते हुए देखना है..., बँटवारे के नाम पर अपने लाखों भाई-बहनों को मरते-मारते देखना है..., ‘सत्ता-हस्तांतरण’ को ही देश की आजादी समझ कर भोले-भाले देशवासियों को जश्न मनाते हुए देखना है..., वायसराय लॉर्ड माउण्टबेटन को ‘मी लॉर्ड’ (ठेठ बोली में कहा जाय तो ‘माई-बाप’) बोलने वाले देश के कर्णधारों को देखना है..., गुलामी के पट्टे के रुप में ‘राष्ट्रमण्डल- कॉमनवेल्थ’ की सदस्यता की माला को भारत माँ के गले में डले हुए देखना है...

जो भी हो। देश आजाद हो गया है, नेहरूजी प्रधानमंत्री बन गये हैं। अब नेताजी भारत आकर ‘राजनीति’ से दूर एक प्रकार से ‘अवकाश’ का जीवन बिताना चाहेंगे।

कहते हैं कि नेताजी ने खुद नेहरूजी को व्यक्तिगत चिट्ठी लिखी थी कि उनकी वापसी की व्यवस्था की जाय। यह भी कहा जाता है कि स्तालिन ने भी भारत सरकार को आधिकारिक रुप से सूचित किया था कि वह चाहे तो अब अपने ‘स्वतंत्रता-सेनानी’ को वापस बुला सकता है। (‘गोपनीय’ दस्तावेजों के ‘सार्वजनिक’ होने के बाद शायद ये पत्र सामने आयें- बशर्ते कि उन्हें नष्ट न कर दिया गया हो।)

मगर लगता है, इस मामले में भारत सरकार की आधिकारिक लाईन भी वही रही होगी, जो ब्रिटेन की थी- बोस को वहीं रहने दिया जाय, जहाँ वे हैं।

या फिर, देश में ‘अराजकता’ फैलने की आशंका की चलते सरकार नहीं चाहती कि नेताजी भारत लौटें गाँधीजी ने भी इस ‘अराजकता’ की आशंका की बात कही थी।

 

 

तीसरी स्थिति: नेताजी को भारत-सरकार की मर्जी के खिलाफ देश लौटना गवारा नहीं होगा  

भारत सरकार द्वारा नेताजी की वापसी को अस्वीकार करने के बाद अब स्तालिन नेताजी का क्या करें? या खुद नेताजी अब क्या करें?

क्या स्तालिन ने साइबेरियायी शहर याकुतस्क की जेल में नेताजी को कैद कर दिया? या, नेताजी ने खुद ‘अज्ञातवास’ के लिए जेल में रहने का फैसला लिया? जब रूसी दस्तावेज सार्वजनिक होंगे, तभी इस प्रश्न का जवाब मिलेगा।

खैर। नेताजी के इस कथन को याद कीजिये- अगर स्वदेशाभिमान सीखना है, तो सीखो एक मछली से, जो स्वदेश (जल) के बिना तड़प-तड़प कर प्राण देती है।

यानि नेताजी लम्बे समय तक बर्फीले साइबेरिया में नहीं रह सकते। उन्हें भारत लौटना ही है- मगर भारत सरकार उनकी वापसी नहीं चाहती।

ऐसे में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि भारत सरकार की मर्जी के खिलाफ जाकर नेताजी भारत क्यों नहीं आ सकते?

याद कीजिये, जुलाई 1943 में सतरह दिनों तक दक्षिण-पूर्वी एशियायी देशों का दौरा करके नेताजी ने पहले ‘जनसमर्थन’ और ‘धन’ जुटाया था, तब जाकर ‘आजाद हिन्द सरकार’ का गठन किया था। अर्थात्, नेताजी के निर्णय तथ्यों और सच्चाईयों के ठोस धरातल पर आधारित होते हैं- भाषणों में भले भावनाओं का ज्वार होता हो।

देश में यह एक आम धारणा है कि ब्रिटेन ने नेताजी को बीस वर्षों के लिए अपना ‘राजद्रोही’ घोषित कर रखा था और सत्ता-हस्तांतरण के समय बाकायदे इस बात पर सहमति बनी थी कि अगर नेताजी बीस वर्षों के अन्दर देश लौटते हैं, तो उन्हें ब्रिटेन को प्रत्यर्पित कर दिया जायेगा।

लोगों की यह धारणा सही है या गलत, यह कभी-न-कभी तो पता चलेगा ही। मगर यहाँ दोनों तरफ से विचार किया जा रहा है।

अगर ‘प्रत्यर्पण’ वाली बात सही है, तो नेताजी के भारत में प्रवेश करने के बाद देश की न्यायपालिका तक बाध्य हो जायेगी नेताजी को ब्रिटेन प्रत्यर्पित करने के लिए! दूसरी तरफ, देश की जनता ऐसा होने नहीं देगी। अब सरकार यदि जनता के दवाब के सामने झुकती है, तो देश के कानून और न्याय व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह लगता है, और नहीं झुकती है, तो कमोबेश गृहयुद्ध की स्थिति पैदा हो जाती है!

अगर ‘प्रत्यर्पण’ पर समझौता नहीं हुआ है, तो भारत आने के बाद नेताजी अपने-आप देश के सबसे लोकप्रिय नेता बन जायेंगे। नागरिक तो नागरिक, सेना का झुकाव भी उन्हीं की ओर होगा। लोग उन्हें चुनाव लड़ने और प्रधानमंत्री बनने के लिए बाध्य करेंगे। जबकि नेहरूजी को राजनीतिक हाशिए पर पहुँचाना नेताजी नहीं चाहेंगे। नेताजी राजनीति में आने से मना करेंगे और तब हो सकता है कि लोग आन्दोलित हो जायें।

कहने का तात्पर्य, चाहे नेताजी को ब्रिटेन प्रत्यर्पित करने का समझौता हुआ हो, या न हुआ हो- दोनों ही स्थितियों में नेताजी के देश में प्रवेश करने पर राजनीतिक अस्थिरता फैलने की आशंका काफी हद तक सही है!

जाहिर है, भारत सरकार की मर्जी के खिलाफ जाकर भारत में प्रवेश करने के इस विकल्प को नेताजी ने खारिज कर दिया होगा; या इस पर विचार किया ही नहीं होगा।

 

चौथी स्थिति: नेताजी ‘अप्रकट’ रूप से भारत आने को तैयार हो गये होंगे  

अब क्या रास्ता बचा?

बेशक, अप्रकट रुप से भारत में प्रवेश करने का।

अगर नेताजी नेहरूजी को वचन दे दें, कि वे आजीवन अप्रकट ही रहेंगे, तो नेहरूजी उन्हें भारत आने की अनुमति दे सकते हैं... 

नेहरूजी इतना तो जानते ही हैं कि नेताजी अपना वचन नहीं तोड़ेंगे...