5.6 (क) अगर नेताजी दिल्ली पहुँच जाते तो...

 

'फॉरवर्ड ब्लॉक' के मियाँ अकबर शाह से लेकर 'इण्डियन लीजन' के आबिद हसन तक, और फिर 'आजाद हिन्द' के हबिबुर्रहमान तक, नेताजी के सैकड़ों मित्र एवं सहयोगी मुसलमान थे। यहाँ इस तथ्य का जिक्र सिर्फ इसलिए किया जा रहा है ताकि सहज ही अनुमान लगाया जा सके कि ...अगर नेताजी 'दिल्ली पहुँच' गये होते, तो आज हमारा देश तीन टुकड़ों में बँटा हुआ नहीं होता!

दूसरी बात, अँग्रेजों के तलवे सहलाने वाले जो बाद में एम.पी., एम.एल.ए. बनने लगे, यह नेताजी नहीं होने देते! (सत्ता सम्भालने के बाद नेताजी के पहले कामों में से एक होता- इन गद्दारों को 'काला पानी' भेजना।) 

तीसरी बात, 1952 से लेकर आजतक जो ‘वोट खरीदने’ की बातें सामने आती हैं- यह भी नहीं होता। क्योंकि ‘हर किसी को वयस्क मताधिकार’ देने में नेताजी जल्दीबाजी नहीं करते। 10-15 वर्षॉं में नागरिकों को शिक्षित एवं जागरूक बनाने के बाद ही वे नागरिकों को वोट देने की जिम्मेवारी और अधिकार प्रदान करते!

चौथी बात, सेना और पुलिस का ब्रिटिश हैंगओवर वे एक झटके में उतार देते! बेशक, जो अधिकारी राजी नहीं होते, उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता। (रात जमकर शराब पीने के बाद सुबह नीन्द से उठने पर भी जो नशा रहता है, उसे ‘हैंग-ओवर’ कहते हैं। यहाँ ब्रिटिश हैंगओवर से तात्पर्य है- खुद को अँग्रेज तथा आम लोगों/सिपाहियों को भारतीय समझने की मानसिकता।)

पाँचवी बात, ‘लालफीताशाही’ वे पनपने ही नहीं देते। एक आई.सी.एस. या आई.ए.एस. अधिकारी एक साधारण नेता पर हावी हो सकता है, मगर नेताजी-जैसे प्रतिभाशाली नेता के सामने उनकी एक न चलती और बाद में भी नेताजी ऐसी चुनाव-व्यवस्था करते कि प्रतिभाशाली नेता ही चुनकर एम.पी., एम.एल.ए. बनते और इस प्रकार, ब्यूरोक्रैसी कभी व्यवस्था पर हावी नहीं हो पाती।

अब एक सबसे महत्वपूर्ण बात- कृपया इसे ध्यान से पढें:

शाहनवाज खान नेताजी के दाहिने हाथ रहे थे- इसमें दो राय नहीं है। मगर जैसे ही इम्फाल-कोहिमा सीमा से खबर आती है कि खान ब्रिटिश सेना में तैनात अपने भाई के सम्पर्क में हैं, नेताजी न केवल खान को रंगून मुख्यालय बुला लेते हैं, बल्कि 'कोर्ट-मार्शल' का भी आदेश दे देते हैं। अगर नेताजी का भाई या भतीजा खान के स्थान पर होता, तो भी नेताजी दया नहीं दिखाते। बाद में, कुछ कारणों से खान का कोर्ट-मार्शल तो नहीं हो पाया, मगर खान को नेताजी ने अपने निकट भी नहीं आने दिया। सिंगापुर के अन्तिम दिनों में नेताजी साथ रहने वाले जिन सहयोगियों के नाम आते हैं, उनमें शाहनवाज खान का जिक्र नहीं है।

इसके मुकाबले नेहरूजी का रवैया देखिये- 1948 में देश में पहला घोटाला होता है- ‘जीप घोटाला’। घोटाला करने वाले हैं- ब्रिटेन में भारत के उच्चायुक्त श्री वी.के. कृष्ण मेनन, जो नेहरूजी के दाहिने हाथ हैं। सेना के लिए 1500 जीपों की खरीद के लिए 1 लाख 72 हजार पाउण्ड धनराशि का अग्रिम भुगतान विवादास्पद कम्पनी को कर दिया जाता है। जो 155 जीपें पहली खेप में आती हैं, वे चलने लायक भी नहीं हैं। 1949 में जाँच होती है, सरसरी तौर पर मेनन को दोषी ठहराया जाता है; मगर नेहरूजी 30 सितम्बर 1955 को मामले को बन्द करवा देते हैं। इतना ही नहीं, 3 फरवरी 1956 को मेनन को वे केन्द्रीय मंत्री बना देते हैं। सेना के लिए जीप खरीद घोटाला करने वाले को रक्षामंत्री बना दिया जाता है!

...अतः यह हमारे देश के साथ नियति का छल ही माना जायेगा कि नेताजी दिल्ली नहीं पहुँच पाते हैं और हमारा देश एक खुशहाल, स्वावलम्बी और शक्तिशाली देश नहीं बन पाता है... इसके बदले नेहरूजी को 17 वर्षों तक देश पर शासन करने का मौका मिलता है, जो देश के पहले घोटाले के दोषी को पुरस्कृत कर एक गलत परम्परा की शुरुआत कर देते हैं, जिसके परिणामस्वरूप 21वीं सदी के दूसरे दशक की उदय बेला में आज देश एक ‘घोटालेबाज’ देश के रुप में विश्व में (कु)प्रसिद्धि पा रहा है...