4.3 ...मगर नेताजी ने आत्म-समर्पण नहीं किया

 

पहले परिस्थितियाँ

मुसोलिनी, हिटलर और तोजो- तीनों की पराजय के बाद अब रह गए हैं- नेताजी।

धुरी राष्ट्रों का मकसद चाहे दुनिया पर राज करने का रहा हो, मगर नेताजी ने इनसे मदद ली थी- भारत को आजाद कराने के लिए। इस लिहाज से नेताजी की हैसियत एक स्वतंत्रता सेनानी की बनती है- उनपर अन्तर्राष्ट्रीय युद्धापराध का मुकदमा नहीं चलना चाहिए।

मगर अमेरीका के रूख में कोई नर्मी नहीं है- जाहिर है वह नेताजी पर अन्तर्राष्ट्रीय युद्धापराध का मुकदमा चलाकर उन्हें फाँसी के तख्ते पर लटकते देखना चाहता है।

ब्रिटेन मुकदमे के पचड़े में नहीं पड़ना चाहता- सुभाष चन्द्र बोस इस धरती पर ब्रिटिश साम्राज्यवाद के सबसे बड़े शत्रु हैं- वह सुभाष को देखते ही गोली मार देने के पक्ष में है। नेताजी के आग उगलते भाषणों और अदम्य वीरता से भरपूर सैन्य अभियानों ने न केवल भारत, बल्कि सारे विश्व के गुलाम देशों को झकझोर कर जगा दिया है और महान ब्रिटिश साम्राज्य की जड़ों को हिलाकर रख दिया है। भारत में तो आजाद हिन्द फौज और नेताजी के जिक्र पर पाबन्दी है ही- बी.बी.सी. वालों को भी आजाद हिन्द फौज के समाचार प्रसारित करने से ब्रिटेन ने रोक दिया है- ताकि नेताजी द्वारा सुलगाई गयी बगावत की आग अन्य एशियायी/अफ्रिकी उपनिवेशों तक न फैले।

रहा सोवियत संघ- वह इस संकट की घड़ी में नेताजी को शरण देने के लिए इच्छुक है या नहीं, इसका कोई दस्तावेजी प्रमाण अब तक तो नहीं मिला है।

(जब तक भारत सहित बाकी चारों देश- ब्रिटेन, अमेरीका, रूस, जापान- नेताजी से जुड़े सभी गोपनीय दस्तावेजों को सार्वजनिक नहीं करते, तब तक कुछ बातें स्पष्ट होंगी भी नहीं! परिस्थितियों को देखते हुए अनुमान ही लगाना पड़ेगा-)

विश्वयुद्ध के अन्तिम दिनों में परिस्थितियाँ ऐसी हैं कि अमेरीका और ब्रिटेन एकजुट हो गये हैं, जबकि अमेरीका तथा सोवियत संघ के बीच कड़वाहट पैदा हो चुकी है, (जर्मनी का बँटवारा इसका उदाहरण है; इसके अलावे, पूँजीवाद बनाम साम्यवाद का झगड़ा तो सार्वकालिक है ही) इसलिए सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि ‘ब्रिटेन तथा अमेरीका को सदा सशंकित बनाये रखने के लिए नेताजी को गुप्त रुप से सोवियत संघ में शरण देने में’ स्तालिन को फायदा ही है!

यहाँ इन दो तथ्यों पर भी ध्यान देने की जरुरत है:-

       1. ‘मित्र राष्ट्र’ के तीन प्रमुख सदस्य देश हैं- अमेरीका, ब्रिटेन और सोवियत संघ। इनमें से अमेरीका और ब्रिटेन के खिलाफ नेताजी ने युद्ध की घोषणा कर रखी है, मगर सोवियत संघ के साथ उनकी मित्रता कायम है। युद्ध के दौरान सोवियत संघ का शासनिक-प्रशासनिक ढाँचा साइबेरिया क्षेत्र में स्थानान्तरित हो गया है, इसलिए आजाद हिन्द सरकार का दूतावास भी साइबेरिया के ओम्स्क शहर में है।

2. ‘धुरी राष्ट्र’ के तीन सदस्य देश हैं- जर्मनी, इटली और जापान। इनमें से जर्मनी और इटली के खिलाफ सोवियत संघ ने युद्ध की घोषणा कर रखी है, मगर जापान के साथ उसकी मित्रता कायम है। स्तालिन ने 8 मई 1945 को ‘माल्टा सम्मेलन’ में रूजवेल्ट और चर्चिल को भरोसा दिलाया था कि जापान के खिलाफ वे मोर्चा खोलेंगे, मगर वास्तव में वे ऐसा नहीं करते। जापान पर दो अणुबमों के प्रहार के बाद- जब जापान आत्मसमर्पण के लिए राजी हो जाता है- तब जाकर 10 अगस्त को सोवियत सेना जापान के खिलाफ युद्ध की घोषणा करते हुए मंचुरिया में प्रवेश करती है। मगर यह एक दिखावा या छलावा (Eyewash) है, असली कारण कुछ और है, जिसका जिक्र आगे आयेगा।

ऊपर की परिस्थिति एवं तथ्यों से जाहिर है कि नेताजी अगर कहीं शरण ले सकते हैं, तो वह है- सोवियत संघ, जहाँ वे 1941 में ही जाना चाहते थे- स्तालिन से सैन्य मदद लेने।

हालाँकि नेताजी के पास दो और विकल्प हैं- 1. माउण्टबेटन की सेना से लड़ते हुए वे युद्धभूमि में शहीद हो जायें; या 2. दक्षिण एशिया के जंगलों में वे छुप जायें- जापान ने स्थानीय लोगों से मदद का भरोसा दिया है, और स्थिति सामान्य होने पर भारत में वे फिर से प्रकट हो जायें।

एक और बात हमें नहीं भूलनी चाहिए कि वियेना (ऑस्ट्रिया) में नेताजी की पत्नी एमिली शेंकेल उनकी तीन साल की नन्हीं बेटी- अनिता- के साथ उनका इन्तजार कर रहीं हैं... और इस वक्त नेताजी के लिए सिंगापुर से ऑस्ट्रिया जाने का रास्ता सोवियत संघ होकर ही जाता है। हालाँकि नेताजी ने पत्र लिखकर एमिली को बता दिया है-

मैं शायद तुम्हें फिर न देख सकूँ। मगर विश्वास करो, तुम सदा मेरे हृदय में, मेरे विचारों में और मेरे सपनों में रहोगी। अगर नियति ने हमें जीवन में अलग कर भी दिया- तो मैं अपने अगले जन्म में तुम्हारी प्रतीक्षा करूँगा.... मेरी परी! मैं तुम्हारा आभारी हूँ कि तुमने मुझे प्यार किया और मुझे तुमसे प्यार करना सिखाया।

(“May be I shall never see you again, but believe me, you will always live in my heart, in my thoughts and in my dreams. If fate should thus separate us in the life- I shall long for you in my next life… My angel! I thank you for loving me and for teaching me to love you.”- Essential Writings of Netaji Subhash Chandra Bose, Netaji Research Bureau and Oxford University Press, 1997, pp 160-161.)  

चूँकि ओम्स्क में आजाद हिन्द सरकार का दूतावास होने के दस्तावेज हाल में उजागर हो गये हैं, इसलिए यहाँ यह अनुमान भी लगाया जा सकता है कि दूतावास के कौन्सुलेट जेनरल ‘काटोकाचु’ ने सोवियत सरकार से नेताजी को शरण देने के बारे में बात की होगी। (‘काटोकाचु’ एक छद्म नाम है, ये वास्तव में एक भारतीय हैं।) स्तालिन शरण देने को राजी होंगे- मगर गुप्त रुप से, ताकि ब्रिटेन और अमेरीका (मित्र राष्ट्र की दुहाई देकर) उनसे नेताजी की माँग न कर सकें। काटोकाचु ने यह सूचना जापान सरकार और नेताजी को दी होगी।

 

और अब घटनाक्रम

10 अगस्त 1945 की रात।

कुआलालामपुर से मेजर जेनरल इनायत कियानी का सन्देश आता है कि सोवियत संघ  ने जापान पर युद्ध की घोषणा कर दी है। नेताजी इस वक्त सिंगापुर के निकट सेरेमबन गेस्ट हाऊस में हैं। उनके साथ हैं- मेजर जेनरल अलगप्पन, कर्नल जी.आर. नागर, कर्नल हबिबुर्रहमान और एस.ए.अय्यर। सभी यहाँ एक संक्षिप्त दौरे पर आये हुए हैं, सो, शॉर्टवेव रेडियो नहीं लाया गया है। 

नेताजी इस समाचार से विचलित नहीं होते। उनका मानना है कि इससे उनके अभियान को कोई फर्क नहीं पड़ता। (हो सकता है, वे इस ‘आक्रमण’ की ‘असलियत’ से वाकिफ हों।)

11 अगस्त।

सेरेमबन में ही आजाद हिन्द फौज के प्रशिक्षण केन्द्र में लम्बी बैठक चलती है, जो रात 10 बजे समाप्त होती है। खाना खाकर जब तक लोग बिस्तर पर जाते हैं, रात्रि के एक बज रहे हैं।

लम्बी दूरी के फोन की घण्टी की आवाज से सभी बिस्तर से बाहर आते हैं। मलक्का से फोन करने वाला बताता है कि सिंगापुर स्थित आई.आई.एल. मुख्यालय से प्रचार विभाग के प्रधान सचिव डॉ. लक्ष्मैया और कार्यवाहक सचिव श्री गणपति नेताजी से मिलने सेरेमबन पहुँच रहे हैं।

एक बन्द कमरे में नेताजी और एस.ए. अय्यर के सामने लक्ष्मैया और गणपति खबर देते हैं- जापान ने आत्मसमर्पण का फैसला ले लिया है!    

यूँ तो नेताजी ने 1937 में ही यह लिख दिया था कि अगर जर्मनी और जापान युद्ध को लम्बा खींचते हैं, तो वे ऐंग्लो-अमेरीकन शक्तियों के आगे परास्त हो जायेंगे; मगर जापान इतनी जल्दी आत्मसमर्पण करेगा- यह अनुमान नेताजी को नहीं था। उनका अनुमान था कि जर्मनी के पतन और जापान के आत्मसमर्पण के बीच उन्हें इतना समय मिल जायेगा कि वे आंग-सान की बर्मा डिफेन्स आर्मी को फिर से अँग्रेजों के खिलाफ कर सकें और उसके साथ आजाद हिन्दी फौज की एक संयुक्त कमान बनाकर अँग्रेजों से लोहा ले सकें। ऐसे में, बर्मा और पूर्वी भारत राष्ट्रवादियों का आधार रहेगा। मगर जापान पर दो अणुबमों के प्रहार के बाद जब जापानी सर्वोच्च सैन्य परिषद में मतभेद उभरता है, तब स्वयं सम्राट हिरोहितो दखल देते हुए आत्मसमर्पण का समर्थन करते हैं।

12 अगस्त।

साढ़े ग्यारह घण्टे की यात्रा करके नेताजी और उनका दल सेरेमबन से सिंगापुर पहुँचता है। जापान के आत्मसमर्पण के प्रभावों को लेकर बैठक होती है और आजाद हिन्द फौज के डिवीजनल कमाण्डरों तथा आई.आई.एल. की शाखाओं के चेयरमैन के लिए जरूरी निर्देश भेजे जाते हैं। सैनिकों- खासकर, झाँसी की रानी रेजीमेण्ट की 500 महिला सैनिकों- की चिन्ता नेताजी के दिमाग में पहले है। स्वयंसेवकों और महिला सैनिकों को समाज में घुल-मिल जाने दिया जाता है।

14 अगस्त।

एक खराब दाँत निकलवाने के बाद डेण्टिस्ट नेताजी को आराम की सलाह देते हैं, मगर वे कम ही आराम कर पाते हैं।

देर रात आजाद हिन्द सरकार के कैबिनेट की महत्वपूर्ण बैठक शुरु होती है। मुद्दा है- नेताजी को सिंगापुर में ही रहकर युद्ध करना चाहिए या नहीं। खुद नेताजी ऐसा चाहते हैं। उनके अनुसार, उनके युद्धबन्दी बनाये जाने या शहीद हो जाने से भारत का स्वतंत्रता संग्राम और तेज होगा। मगर नेताजी के सहयोगी उनसे सहमत नहीं हैं। उनके अनुसार, नेताजी जीवित रहकर स्वतंत्रता संग्राम को ज्यादा तेज बना सकते हैं।

15 अगस्त।

जापान आधिकारिक रुप से आत्मसमर्पण की घोषणा करता है।

सिंगापुर में उस रात पाँच घण्टों की बैठक के बाद फैसला होता है कि नेताजी सिंगापुर छोड़ देंगे। मगर वे जायेंगे कहाँ- स्याम (थाईलैण्ड), इण्डो-चायना (वियेतनाम), जापान, मंचुकुओ, या... रशिया?- इस प्रश्न पर क्या फैसला हुआ था- इसका जिक्र बैठक में शामिल किसी भी व्यक्ति ने अपने संस्मरण में नहीं किया है। जाहिर है, यहीं से नेताजी को बचाने के रहस्यमयी प्रयासों की शुरुआत हो जाती है।

इन्हीं प्रयासों के तहत यह बताया जाता है कि उस बैठक में यह फैसला हुआ था कि अन्तिम सलाह-मशविरे के लिए और जापान को (सहयोग के लिए) धन्यवाद देने के लिए नेताजी टोक्यो जायेंगे। कर्नल हबिबुर्रहमान, कर्नल प्रीतम सिंह, मेजर आबिद हसन, मेजर स्वामी और श्री देबनाथ दास नेताजी के साथ होंगे। ये सभी सायगन होते हुए टोक्यो जायेंगे और फिर वहाँ से किसी ‘अज्ञात’ ठिकाने पर जायेंगे।

यह फैसला भी होता है कि मेजर जेनरल कियानी सिंगापुर में ही रहेंगे और नेताजी की अनुपस्थिति में आजाद हिन्द सरकार/फौज का काम देखेंगे। मेजर जेनरल अलगप्पन और ए.एन. सरकार उनका सहयोग करेंगे।

सारी बातें तय होते-होते भोर के तीन बज जाते हैं।

16 अगस्त।

नेताजी के सहयोगी जिसे ‘अज्ञात’ स्थान बताते हैं, वह सोवियत संघ ही है- इसका प्रमाण है यह टेलीग्राम, जो बैठक समाप्त होने के बाद नेताजी टोक्यो को भेजते हैं:

मैं अपने कैबिनेट के कुछ विश्वस्त सहयोगियों के साथ सोवियत संघ जाना चाहूँगा। अगर आवश्यकता हुई, तो मैं अकेले ही सोवियत संघ में प्रवेश करूँगा।

(Along with the trusted persons of my cabinet, I would like to go to the Soviet Union. If it is necessary, I shall enter the Soviet Union alone. -Leonard A. Gordon: Brothers against the Raj, Page- 538)

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टेलीग्राम पाकर टोक्यो अपने फील्डमार्शल काउण्ट तेराउचि को निर्देश देता है- काटा-काना को सिंगापुर से निकालकर गुप्त रुप से सोवियत संघ पहुँचाने की व्यवस्था की जाय।

सोवियत सैनिक 10 अगस्त को ही मंचुरिया में प्रवेश कर चुके हैं। इन सैनिकों की मदद से काटा-काना को सोवियत संघ में प्रवेश दिलाया जा सकता है।   

जापानी सेना के सोवियत विशेषज्ञ लेफ्टिनेण्ट जेनरल सिदेयी (दक्षिण-पूर्वी कमान के चीफ ऑव स्टाफ) मनीला में तैनात हैं। तेराउचि तुरन्त उनकी नियुक्ति मंचुरिया के दाईरेन नामक स्थान में करते हैं और उन्हें तत्काल प्रभाव से योगदान देने का निर्देश देते हैं।

हाँ, दाईरेन जाते हुए सायगन में रुककर उन्हें काटा-काना को भी साथ लेना है।

उधर सिंगापुर से काटा-काना भी अपने सहयोगियों के साथ बैंकॉक होते हुए सायगन के लिए रवाना होने वाले हैं।

तेराउचि सायगन में जेनरल ईशोदा को निर्देश देते हैं- काटा-काना को मनीला से आकर ताईपेह होकर दाईरेन जाने वाले विमान में बिठाने की व्यवस्था की जाय।

तेराउचि की योजना की रंगभूमि है- ताईपेह, जो कि फारमोसा का प्रमुख नगर है। (फारमोसा एक टापू है, जिसे अब ताईवान कहते हैं।)

(जापान में नेताजी को चन्द्र बोस के नाम से सम्बोधित किया जाता है, जापानी भाषा में- काटा-काना।)