5.4 गाँधी-नेहरू और सुभाष

 

ढ़िये, जुलाई 1940 में अपने साप्ताहिक 'हरिजन सेवक' के दूसरे अंक में गाँधीजी क्या लिखते हैं:

"वर्धा से लौटते हुए नागपुर स्टेशन पर एक नवयुवक ने यह सवाल पूछा कि कार्य-समिति ने सुभाष बाबू की गिरफ्तारी की तरफ क्यों कुछ ध्यान नहीं दिया? नवयुवक का प्रश्न मुझे ठीक लगा। मैंने उसे ध्यान में रख लिया। सुभाष बाबू दो बार काँग्रेस के राष्ट्रपति चुने जा चुके हैं। अपनी जिन्दगी में उन्होंने भारी आत्मबलिदान किया है। वह एक जन्मजात नेता हैं। मगर सिर्फ इस वजह से कि उनमें ये सब गुण हैं, यह साबित नहीं होता कि उनकी गिरफ्तारी के खिलाफ कार्य-समिति अपनी आवाज ऊँची करे।

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जाहिर है कि गाँधीजी अच्छी तरह जानते थे कि बात चाहे देशभक्ति की हो या आत्मबलिदान की; प्रतिभा की हो या नेतृत्व की क्षमता की, हर मामले में सुभाष नेहरू से बीस पड़ता है। वे यह भी जानते होंगे कि आजादी के बाद नेहरू के मुकाबले सुभाष ही देश को बेहतर शासन-प्रशासन दे सकता है।

इसके बावजूद गाँधीजी नेताजी के प्रति सौतेला भाव रखते हैं और नेहरूजी को– एक प्रकार से- अपना उत्तराधिकारी घोषित करते हैं।

ऐसा वे सिर्फ 'वैचारिक मतभेद' के कारण करते हैं। गाँधीजी जहाँ अँग्रेजों का हृदय-परिवर्तन करना चाहते थे, वहीं नेताजी अँग्रेजों के खिलाफ हथियार उठाना चाहते थे। अन्तिम लक्ष्य दोनों का एक ही था- आजादी!

इस 'वैचारिक मतभेद' के बावजूद नेताजी गाँधीजी के प्रति 'पिता'-जैसा सम्मान मन में बनाये रखते हैं, मगर गाँधीजी इसी 'वैचारिक मतभेद' के कारण नेताजी के प्रति 'पुत्र'-जैसा स्नेह रखने की 'महानता' नहीं दिखा पाते।

(गाँधीजी को 'राष्ट्रपिता' का सम्बोधन नेताजी ने ही दिया था- बर्लिन से 'आजाद हिन्द रेडियो' पर।)

गाँधीजी एक तरफ नेताजी को काँग्रेस से बाहर करते हैं और कोहिमा-इम्फाल युद्ध के दौरान नेताजी के समर्थन में देश में आन्दोलन नहीं चलाते हैं; तो दूसरी तरफ नेहरूजी को देश का प्रधानमंत्री बनाने के लिए आजादी से ठीक पहले काँग्रेस की प्रान्तीय समितियों की सिफारिशों (जिसमें पटेल का नाम प्रस्तावित है- काँग्रेस अध्यक्ष पद के लिए) की अवहेलना करते हैं।

इन सब का कितना खामियाजा हमारे देश को उठाना पड़ा- इसका आकलन अभी हम नहीं कर सकते। आने वाली दो-एक शताब्दी के बाद क्षमाहीन और निर्मम "काल" इसका आकलन करेगा!

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(क्या ऐसा नहीं लगता कि इस आधुनिक महाभारत में गाँधीजी श्रीकृष्ण, नेहरूजी अर्जुन और नेताजी कर्ण की भूमिका में हैं? विश्वयुद्ध की परिस्थितियाँ नेताजी को दुर्योधन-दुःशासन रुपी हिटलर-मुसोलिनी का मित्र बना देती है। कुछ फर्क भी हैं- जैसे, यहाँ शकुनी रुपी माउण्टबेटन अर्जुन को बुद्धी देते नजर आ रहे हैं! महाभारत की कुन्ती तो फिर भी कर्ण को अपना बेटा स्वीकार कर लेती है, मगर यहाँ कुन्ती रुपी काँग्रेस अब तक अपने ‘अधिवेशनों’ में नेताजी की तस्वीर नहीं लगाती- जबकि नेताजी दो बार काँग्रेस के अध्यक्ष चुने जा चुके हैं!)

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नेहरूजी के प्रति गाँधीजी की आसक्ति आजादी के बाद देश के कोई काम नहीं आती है। प्रधानमंत्री बनने के बाद नेहरूजी गाँधीजी के एक भी सिद्धान्त को नहीं अपनाते हैं। कृषि को नजरान्दाज कर उद्योग-धन्धों में पैसा खर्च किया जाता है; कुटीर एवं लघु उद्योगों को कुचलकर मशीनीकरण का जाल फैलाया जाता है; स्थानीय स्तर के शासन-प्रशासन को कमजोर कर सत्ता का भारी केन्द्रीकरण किया जाता है; ‘आधा पेट खाकर भी देश का पुनर्निर्माण करेंगे’- जैसी भावना भरने के बजाय ‘कर्ज लेकर घी पीने’ की मानसिकता तैयार की जाती है (जरा सोचिये, जब देश आजाद हुआ, तब एक डॉलर एक रूपये में मिलता था- विश्व बैंक से कर्ज पाने के लिए रूपये का पहली बार अवमूल्यन किया गया- तब से अब तक यह प्रक्रिया थम नहीं पायी है- हम कर्ज की जाल में फँस चुके हैं!); पुलिस एवं प्रशासन के लोगों को यह समझाने की कोशिश नहीं की जाती है कि देश के नागरिक अब उन्हीं के भाई-बन्धु हैं- ‘शासित’ नहीं; ...यानि हर काम गाँधीजी के सिद्धान्तों के उलट।

गाँधीजी जहाँ आजाद भारत की नींव को मजबूत बनाना चाहते थे, वहीं नेहरूजी बिना नींव के ही आलीशान गुम्बज बनाने में जुट जाते हैं!

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नेताजी ने 'इण्डियन सिविल सर्विसेज' (तब का यह आई.सी.एस. ही अब आई.ए.एस. कहलाता है) की परीक्षा में चौथा (या शायद दूसरा) स्थान प्राप्त किया था। यह उनके प्रतिभाशाली होने का परिचायक है। इसके अलावे उनका व्यक्तित्व शानदार था, भाषण कला जानदार थी और नेतृत्व की क्षमता अद्भुत थी। उनकी देशभक्ति के बारे में कुछ कहना सूरज को दीया दिखाने-जैसा है। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भी वे 'भारत के स्वतंत्रता सेनानी' के रुप में प्रसिद्ध थे।

कुछ इन्हीं कारणों से सम्भवतः नेहरूजी के मन में नेताजी के प्रति एक ग्रन्थी-सी बन गयी होगी, जिस कारण वे आजादी के बाद आधुनिक भारत के इतिहास के पन्नों में से नेताजी के अध्याय को एक तरह से गायब ही करने की कोशिश करते हैं।

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दुनिया में बहुत कम ही नेता ऐसे हुए हैं, जिनके बारे में दुनिया का कोई भी व्यक्ति कभी कोई अपशब्द नहीं बोल सकता है- नेताजी उनमें से एक हैं। दुनिया के किसी भी देश का नागरिक नेताजी के प्रति सम्मान से सर झुकाता है- यह हमारे देश के लिए एक बड़ी उपलब्धि है।