5.7 नेताजी के सपने को पूरा करना है...

 

हते हैं कि सूर्योदय से पहले का अन्धेरा कुछ ज्यादा ही घना होता है। एक भ्रष्ट और घोटालेबाज देश के रुप में बदनाम हो रहा हमारा देश शायद उसी अन्धेरे के दौर से गुजर रहा है।

गुलामी का दौर भी अन्धेरे का ही दौर था। उस वक्त नेताजी किस प्रकार के शासन के बारे में सोचते थे यह उनके निम्न कथन से जाहिर होता है:

ब्रिटिश साम्राज्यवाद के बाद इस भारत में पहले बीस वर्ष के लिये तानाशाही राज्य कायम होनी चाहिये एक तानाशाही ही देश से गद्दारों को निकाल सकता है

भारत को अपनी समस्याओं के समाधान के लिये एक कमाल पाशा की आवश्यकता है

(उल्लेखनीय है कि नेताजी ‘कमाल अतातुर्क पाशा’ को अपना आदर्श मानते थे, जिनकी तानाशाही की बदौलत तुर्की के लोग आज अपने देश को दकियानूस अरब जगत का हिस्सा नहीं, बल्कि आधुनिक यूरोपीय देशों के समकक्ष मानते हैं।)

नेताजी ने ये बातें भले आजादी से बहुत पहले कही थीं, मगर आजादी के 64 वर्षों के बाद आज इन कथनों की सार्थकता अचानक बढ़ गयी है।

नेताजी के कथन में जिन्हें ‘गद्दार’ कहा गया हैं, आज वे हमारे बीच भ्रष्ट राजनेता, भ्रष्ट उच्चाधिकारी, भ्रष्ट पूँजीपति और माफिया सरगना के रुप में मौजूद हैं- इसमें कोई दो राय नहीं है

समय आ गया है कि नेताजी- जैसा कोई व्यक्ति देश की सत्ता सम्भाले, गद्दारों को (व्यवस्था से) निकाल बाहर करे, देश की समस्याओं का समाधान करते हुए आदर्श ‘लोक’-तंत्र या ‘जन’-तंत्र की स्थापना करे और विश्व के मानचित्र पर देश को वह स्थान दिलाये, जिसका वह हकदार है

अगर यह सबकुछ कुछ वर्षों के ‘एकच्छत्रीय’ लोकतंत्र (राष्ट्रपति प्रणाली- जैसी) से भी आता है, तो हर्ज क्या है?

वयोवृद्ध अर्थशास्त्री डॉ. अरूण घोष के इस कथन पर नजर डालिये, जिससे पता चलता है कि आज हमारा ‘संसदीय’ लोकतंत्र (अब तो गठबन्धन अनिवार्य हो चला है) कोई बहुत अच्छे ढंग से काम नहीं कर रहा है:      

मैं तो केवल सर्वनाश देख सकता हूँ भविष्य में क्या होगा, इसकी भविष्यवाणी नहीं कर सकता पर समाज विचलित हो रहा है जनता की नाराजगी बढ़ रही है मेरा मानना है कि संसद वर्तमान स्थिति को रोकने की हालत में नहीं है सभी पार्टियाँ इन नीतियों (उदारीकरण) की समर्थक हैं, और सांसदों में सड़क पर आने का दम नहीं है

मुझे तो लगता है कि एक लाख लोग अगर संसद को घेर लें, तो शायद कुछ हो

       डॉ. अरूण घोष ने यह बात दैनिक 'जनसत्ता' को दिये गये अपने साक्षात्कार में कही थी।

       (यह साक्षात्कार 30 जुलाई 1998 को प्रकाशित हुआ था।)

 

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       अन्त में, गाँधीजी के विचारों को पढ़ा जाय, जिसे पढ़कर ऐसा लगेगा, मानो सात-आठ दशकों पहले ही उनकी अन्तर्दृष्टि ने हमारे आज के ‘संसदीय लोकतंत्र’ को देख लिया था:

       ऐसा सामान्यतया माना जाता है कि संसद-सदस्य पाखण्डी एवं स्वार्थी होते हैं। सभी अपने छोटे-छोटे हितों की सोचते हैं। सदस्य बिना सोचे ही अपनी पार्टी को संसद में वोट देते हैं। तथाकथित अनुशासन ही उन्हें बाँधे रखता है। अपवाद स्वरुप अगर कोई संसद-सदस्य स्वतंत्र वोट करता है, तो उसे विश्वासघाती मान लिया जाता है।

      प्रधानमंत्री संसद के कल्याण से ज्यादा अपनी शक्ति के लिए चिन्तित रहता है। उसकी ऊर्जा पार्टी की सफलता प्राप्त कराने में ही लगी रहती है। उसे यह चिन्ता नहीं रहती है कि संसद को सही काम करना चाहिए।

      अगर वे (प्रधानमंत्री) ईमानदार माने जाते हैं, तो इसलिए क्योंकि वे वह नहीं लेते, जिसे सामान्यतया घूस माना जाता है। लेकिन कुछ दूसरी प्रभावी विधियाँ भी हैं। वे अपने हितों को साधने के लिए लोगों को पुरस्कार एवं सम्मान के रूप में घूस देते हैं। मैं यह कहने को मजबूर हूँ कि वे न तो सच्चे ईमानदार हैं और न ही उनकी अन्तरात्मा जीवित है।

       (यह उक्ति ‘इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय’- ‘इग्नू’- की पाठ्य-पुस्तक आधुनिक भारतीय राजनीतिक विचारधारा (EPS- 3) के खण्ड- 3, पृष्ठ- 10 से उद्धृत है।)