1.5 ‘“कलकत्ता पहुँचो”- बोस’

नौशेरा जिले (NWFP) के बदरशी गाँव में फॉरवर्ड ब्लॉक के नेता मियाँ अकबर शाह को टेलीग्राम मिलता है- कलकत्ता पहुँचो- बोस; और बयालीस वर्षीय ये खूबसूरत पठान पेशावर से उसी रात फ्रंटियर मेल पकड़कर रवाना हो जाते हैं।

तीन दिन बाद वे कलकत्ता पहुँचते हैं और मिर्जापुर स्ट्रीट के एक होटल में रुककर चौथे दिन एल्गिन रोड वाले घर में आकर देखते हैं- उनका नेता बिस्तर पर पड़ा है- कमजोर और दाढ़ी बढ़ी हुई।

नेताजी उनसे कहते हैं- मुझे अफगानिस्तान के कबायली इलाके से होकर देश छोड़ना है, मदद चाहिए।

पठान कहते हैं- आप ट्रेन से पेशावर तक पहुँचिए, आगे की जिम्मेवारी मेरी।

और फिर मियाँ अकबर शाह नेताजी को जियाउद्दीन का नाम, एक इंश्योरेन्स कम्पनी के ट्रैवेलिंग इंस्पेक्टर का पेशा सुझाते हैं। पठानों की चाल-ढाल, आदतें, परम्परायें समझाते हैं। शिशिर के साथ धर्मतल्ला स्ट्रीट की प्रसिद्ध मुस्लिम दुकान (वाचेल मोल्ला) से भेष बदलने के लिए जरुरी सामानों की खरीदारी भी वे कर लाते हैं।

रही बात पश्तो भाषा न जानने की, तो कोई बात नहीं, जियाउद्दीन मूक-बधिर (गूँगा-बहरा) रहेगा। योजना बनाकर मियाँ अकबर शाह लौट जाते हैं- अगली मुलाकात इंशाअल्लाह पेशावर में होगी।

नेताजी पहले अपने भतीजों को, बाद में भैया (शरत चन्द्र बोस) और भाभी को भरोसे में लेते हैं।

घर के नौकरों में से कुछ सी.आई.डी. से मिले हैं, अतः नेताजी कुछ दिनों के एकान्तवास के नाम पर अपने कमरे में पर्दा डाल लेते हैं कि खाना पर्दे के बाहर ही रख दिया जाय। इन दिनों वे किसी से भी बातचीत नहीं करेंगे।

17 जनवरी की रात वे घर से निकल जाते हैं- जैसा कि शुरु में ही वर्णन किया गया है।

सी.आई.डी. वाले निगरानी कर ही रहे हैं। नेताजी के कमरे में बाकायदे पर्दे के बाहर खाना रखा जा रहा है।

अचानक दसवें दिन घरवाले शोर मचाते हैं- नेताजी कमरे में नहीं हैं!

सी.आई.डी. के हाथ-पाँव सुन्न; और ब्रिटिश सरकार तो दो साल तक नहीं समझ पाती है कि यह हुआ कैसे?

(बाद में किसी की चुगलखोरी से नेताजी के भतीजों की संलिप्तता जाहिर होती है और शिशिर बोस को सात साल की सजा हो जाती है। उन्हें अक्तूबर’44 में बदनाम लाहौर जेल भेज दिया जाता है। हालाँकि साल भर के अन्दर उन्हें रिहा भी कर दिया जाता है।)