3.3 आजाद हिन्द फौज

    

     गले दिन 5 जुलाई (1943) को ‘इण्डियन नेशनल आर्मी’ की कमान थामकर नेताजी इसका नामकरण करते हैं- ‘आजाद हिन्द फौज’।

मनीला से स्वयं तोजो समय पर पहुँचते हैं- परेड देखने। परेड की सलामी लेने के बाद नेताजी जो कुछ कहते हैं, उसके कुछ अंश-

 

भारत की आज़ादी की सेना के सैनिकों!...

       आज का दिन मेरे जीवन का सबसे गर्व का दिन है। प्रसन्न नियति ने मुझे विश्व के सामने यह घोषणा करने का सुअवसर और सम्मान प्रदान किया है कि भारत की आज़ादी की सेना बन चुकी है। यह सेना आज सिंगापुर की युद्धभूमि पर- जो कि कभी ब्रिटिश साम्राज्य का गढ़ हुआ करता था- तैयार खड़ी है।...

एक समय लोग सोचते थे कि जिस साम्राज्य में सूर्य नहीं डूबता, वह सदा कायम रहेगा। ऐसी किसी सोच से मैं कभी विचलित नहीं हुआ। इतिहास ने मुझे सिखाया है कि हर साम्राज्य का निश्चित रुप से पतन और ध्वंस होता है। और फिर, मैंने अपनी आँखों से उन शहरों और किलों को देखा है, जो गुजरे जमाने के साम्राज्यों के गढ़ हुआ करते थे, मगर उन्हीं के कब्र बन गये। आज ब्रिटिश साम्राज्य की इस कब्र पर खड़े होकर एक बच्चा भी यह समझ सकता है कि सर्वशक्तिमान ब्रिटिश साम्राज्य अब एक बीती हुई बात है।...   

1939 में जब फ्राँस ने जर्मनी पर आक्रमण किया, तब अभियान शुरु करते वक्त जर्मन सैनिकों के होंठों से एक ही ललकार निकली- चलो पेरिस! चलो पेरिस! जब बहादूर निप्पोन के सैनिकों ने दिसम्बर 1941 में कदम बढ़ाये, तब जो ललकार उनके होंठों से निकली, वह थी- चलो सिंगापुर! चलो सिंगापुर! साथियों! मेरे सैनिकों! आईए, हम अपनी ललकार बनायें- चलो दिल्ली! चलो दिल्ली!...

मैं नहीं जानता आज़ादी की इस लड़ाई में हममें से कौन-कौन जीवित बचेगा। लेकिन मैं इतना जानता हूँ कि अन्त में हमलोग जीतेंगे और हमारा काम तबतक खत्म नहीं होता, जब तक कि हमारे जीवित बचे नायक ब्रिटिश साम्राज्यवाद की दूसरी कब्रगाह- पुरानी दिल्ली के लालकिला में विजय परेड नहीं कर लेते।...

अपने सम्पूर्ण सामाजिक जीवन में मैंने यही अनुभव किया है कि यूँ तो भारत आज़ादी पाने के लिए हर प्रकार से हकदार है, मगर एक चीज की कमी रह जाती है, और वह है- अपनी एक आज़ादी की सेना। अमेरिका के जॉर्ज वाशिंगटन इसलिए संघर्ष कर सके और आज़ादी पा सके, क्योंकि उनके पास एक सेना थी। गैरीबाल्डी इटली को आज़ाद करा सके, क्योंकि उनके पीछे हथियारबन्द स्वयंसेवक थे। यह आपके लिए अवसर और सम्मान की बात है कि आपलोगों ने सबसे पहले आगे बढ़कर भारत की राष्ट्रीय सेना का गठन किया। ऐसा करके आपलोगों ने आज़ादी के रास्ते की आखिरी बाधा को दूर कर दिया है। आपको प्रसन्न और गर्वित होना चाहिए कि आप ऐसे महान कार्य में अग्रणी, हरावल बने हैं।...

 जैसा कि मैंने प्रारम्भ में कहा, आज का दिन मेरे जीवन का सबसे गर्व का दिन है। गुलाम लोगों के लिए इससे बड़े गर्व, इससे ऊँचे सम्मान की बात और क्या हो सकती है कि वह आज़ादी की सेना का पहला सिपाही बने। मगर इस सम्मान के साथ बड़ी जिम्मेदारियाँ भी उसी अनुपात में जुड़ी हुई हैं और मुझे इसका गहराई से अहसास है। मैं आपको भरोसा दिलाता हूँ कि अँधेरे और प्रकाश में, दुःख और खुशी में, कष्ट और विजय में मैं आपके साथ रहूँगा। आज इस वक्त मैं आपको कुछ नहीं दे सकता सिवाय भूख, प्यास, कष्ट, जबरन कूच और मौत के। लेकिन अगर आप जीवन और मृत्यु में मेरा अनुसरण करते हैं, जैसाकि मुझे यकीन है आप करेंगे, मैं आपको विजय और आज़ादी की ओर ले चलूँगा। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि देश को आज़ाद देखने के लिए हममें से कौन जीवित बचता है। इतना काफी है कि भारत आज़ाद हो और हम उसे आज़ाद करने के लिए अपना सबकुछ दे दें। ईश्वर हमारी सेना को आशीर्वाद दे और होनेवाली लड़ाई में हमें विजयी बनाये।...

इन्क्लाब ज़िन्दाबाद!...

आज़ाद हिन्द ज़िन्दाबाद! 

(15 फरवरी 1942 के दिन जापान के हाथों सिंगापुर के पतन को ब्रिटिश साम्राज्यवाद की पहली कब्रगाह के रुप में नेताजी देख रहे हैं। और यह सही भी है। भले भारत को आजाद होने में और पाँच साल लग गये, मगर ब्रिटिश साम्राज्यवाद के पतन की शुरुआत सिंगापुर से ही हो जाती है।) 

नेताजी की इच्छा एक विशाल और भव्य सेना गढ़ने की है, मगर दुर्भाग्य से हथियारों के लिए वे पूरी तरह जापान पर निर्भर हैं और जापान का कहना है कि वह तीस हजार सैनिकों के लायक ही हथियार मुहैया करा सकता है। (जापानी सैन्य अधिकारी हिदेओ इवाकुरो तथा मेजर जेनरल इशोदा आज़ाद हिन्द फौज़ के सलाहकार हैं।)

अपनी योजना में कटौती करते हुए नेताजी दस-दस हजार सैनिकों के तीन ब्रिगेड- गाँधी, आज़ाद और नेहरू ब्रिगेड- गठित करते हैं। (सुभाष ब्रिगेड का गठन युद्ध से ठीक पहले होता है- इसके बारे में हम आगे जानेंगे।) इनमें ज्यादातर युद्धबन्दी सैनिक हैं, मगर कुछ नये भारतीय सैनिक भी भर्ती किये जाते हैं- क्योंकि नेताजी जानते हैं कि एक ‘युद्धबन्दी’ सैनिक का ‘नमक’ कभी भी जोर मार सकता है। उनके आव्हान पर दक्षिण-पूर्वी एशिया के विभिन्न क्षेत्रों से इकट्ठा हुए बीस हजार भारतीय युवकों (जिनमें ज्यादातर ब्रिटिश मलाया के बागानी हैं) को लेकर चौथा ब्रिगेड भी बनाया जाता है, मगर यह ब्रिगेड स्वयंसेवकों का होगा (सम्भवतः इनके हाथों में हथियार नहीं होंगे)।

तिरंगे के बीच टीपू सुल्तान के छलाँग भरते शेर को फौज का चिन्ह बनाया जाता है।

आदर्श वाक्य हैं- इत्तेफाक, इत्माद और कुर्बानी

(एकता, विश्वास और बलिदान/Unity, Faith and Sacrifice)।

कदम-कदम बढ़ाये जा, खुशी के गीत गाये जा; यह जिन्दगी है कौम की, तू कौम पे लुटाये जा...- इस गीत को फौज का कूच-गीत (Marching Song) बनाया जाता है। इस जोशीले गीत के रचयिता हैं- राम सिंह ठाकुर।

अधिकारियों के लिए ‘ऑफिसर्स ट्रेनिंग स्कूल’ तथा नागरिक स्वयंसेवकों के प्रशिक्षण के लिए ‘आज़ाद स्कूल’ की स्थापना होती है।

पैंतालीस भारतीय युवकों को खुद अपने हाथों से चुनकर नेताजी उन्हें जापान के शाही सैन्य अकादमी (इम्पीरियल मिलीटरी एकेडेमी) में युद्धक विमानचालक (फाईटर पायलट) के प्रशिक्षण के लिए भेजते हैं- प्यार से इन्हें ‘टोक्यो ब्वॉयज़’ कहा जाता है।

सिंगापुर और मलाया में रहने वाले श्रीलंकाई नागरिक आज़ाद हिन्द फौज़ के अन्दर ‘लंका रेजीमेण्ट’ का गठन करते हैं। दरअसल, श्रीलंका में ‘लंका सम समाज पार्टी’ के नेताओं की 1941 में गिरफ्तारी के बाद से ब्रिटिश विरोधी भावनायें प्रबल हो गयी हैं। जापान गुप्त रुप से उनकी भी मदद कर रहा है। कोको द्वीपसमूह को जापानियों के हाथों सौंपने के लिए वहाँ तैनात सीलोन गैरीसन अर्टिलरी वाले 42 में एक असफल बगावत कर भी चुके हैं। आगे चलकर लंका रेजीमेण्ट के श्रीलंकाई जवानों को पनडुब्बी के माध्यम से श्रीलंका में उतारने की कोशिश की जाती है, मगर यह प्रयास भी असफल रहता है।  

आज़ाद हिन्द फौज़ के नेतृत्व, प्रशासन और संचार को जापानी नियंत्रण से मुक्त रखने में नेताजी को मशक्कत करनी पड़ती है। इसमें नेताजी का भव्य और महान व्यक्तित्व काम आता है। जापानी हाई कमान के अधिकारी, यहाँ तक कि खुद प्रधानमंत्री तोजो भी नेताजी से व्यक्तिगत रुप से प्रभावित हैं, अतः वे (जापानी नियंत्रण के लिए) नेताजी पर ज्यादा दवाब नहीं डाल सकते।

स्वभाव से भी नेताजी ‘समझौता नहीं करने वालों में से’ हैं; वे वही कहते हैं, जो सही है। तीस के दशक में (चीन के) मंचूरिया प्रान्त पर जापान के आक्रमण का उन्होंने विरोध किया था और चांग-काई-शेक का समर्थन किया था। (भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस की ओर से एक चिकित्सा दल लेकर वे चीन गये भी थे।)

एशिया में अपने ढंग के अकेले महिला सैन्य दस्ते ‘झाँसी की रानी रेजीमेण्ट’ का गठन नेताजी बाद में- साल के अन्त में-  करते हैं, जिसका नेतृत्व कैप्टन (बाद में लेफ्टिनेण्ट कर्नल) लक्ष्मी विश्वनाथन (बाद में लक्ष्मी सहगल) को सौंपा जाता है। सिंगापुर की जानकी अथि नाहप्पन (Janaky Athi Nahappan) सेकेंड-इन-कमाण्ड होती हैं। एक ‘बालक सेना’ का भी गठन होता है।

लक्ष्मी सहगल सिंगापुर की नामी डॉक्टर हैं-  नेताजी के आव्हान पर वे सब छोड़कर सेना में शामिल होती हैं- ऐसे बहुत-से लोग हैं।

एक करोड़ रुपये में नेताजी की माला खरीदने वाले मलाया के उद्योगपति हबीबुर्रहमान भी सब छोड़कर सेना में शामिल होते हैं।

उन दिनों उन क्षेत्रों में बँगला में एक कहावत प्रचलित हो गयी थी- ‘कोरो सोब निछाबोर, बोनो सोब फोकीर’ (करो सब न्यौछावर, बनो सब फकीर)। कितने तो परिवार ही सर्वस्व दान में देकर सेना में शामिल हो गये- पति आजाद हिन्द फौज़ में, पत्नी झाँसी की रानी रेजीमेण्ट में और बच्चे बालक सेना में... ! 

कहते हैं कि नेताजी का व्यक्तित्व ही ऐसा था कि कोई भी उनके लिए हँसते-हँसते प्राण देने को तैयार हो जाय। ऐसे सुपुरूष धरती पर बिरले ही पैदा होते हैं। धन्य है हमारी भारत माँ, जिसने अपनी कोख से ऐसे सपूत को जन्म दिया... और धन्य हैं वे लोग, जिन्हें इस महान सपूत को अपनी आँखों से देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ... !

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(कुछ वर्षों पहले लेफ्टिनेण्ट कर्नल लक्ष्मी सहगल (कामरेड सुभाषिनी अली की माँ) ने दूरदर्शन पर साक्षात्कार देते हुए नेताजी के बारे में दो महत्वपूर्ण बातें बतायीं थीं-

1. नेताजी वही भोजन ग्रहण करते थे, जो आम सैनिकों को मिलता था;

2. (बर्मा के युद्धक्षेत्र में) ब्रिटिश बमबारी के दौरान बंकर में प्रवेश करनेवाले वे अन्तिम व्यक्ति होते थे।)